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मुझ में बुद्धि नहीं होने पर भी आपकी स्तवना करने के लिए उद्यत हुआ हूँ । इसी लिए शरमाता हूँ, ऐसा अर्थ नहीं करना। "शरम' यह कार्य है, और बुद्धि बिना की स्तुति का प्रारम्भ यह कारण है, ऐसा नहीं समझना । परन्तु बुद्धि विना की स्तवना ये कार्य है तथा मुझमें जरा भी भय नहीं, क्षोभ नहीं, शरम नहीं, मैं “विगत त्रपो' हूँ यही कारण है । अगर मेरे में क्षोभ होता, मेरे में आत्म-विश्वास का अभाव होता तो में कभी यह काव्य नहीं बना सकता था । पू. मेघविजयजी उपाध्याय ने मात्र भक्तामर की टीका का ही अर्थ प्रकट नहीं किया है; परन्तु मानतुंगी महा-सिद्धि का महा-मंत्र भी प्रकाशित किया है । एक बार नहीं, हजार बार नोट कर लो-"शरमाशो तो करमाशो' परन्तु ऐसा आत्म-विश्वास का रहस्य है “अवंचकता" कभी भी आत्मा को ठगना नहीं । जो आत्मवंचक है, जो ता है अपने स्वयं को ठग उनकी ललकार बड़ी होती है । परन्तु उसमें हिम्मत नहीं होती । हिम्मत-धैर्य-आत्म विश्वास तो आत्म सन्मान करने वालों में ही प्रकट होती हैं । प्रयत्न करते रहो “आत्म-विश्वास में आगे बढ़ने की" जगत को ठगने वाले तो एक दिन पकड़े ही जायेंगे साथ ही उनकी सदा पराजय ही होगी । इसीलिए अपनी आत्मा को कभी ठगना नहीं । स्वयं ठगने वाले में कभी आत्म-विश्वास आ नहीं सकता । आत्म विश्वास के बिना कभी सफलता मिल नहीं सकती । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज सफल कवि है, श्री भक्तामर-स्तोत्र, यह आपकी सफल कृति है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी में प्रचंड आत्म-विश्वास था... आपका श्री भक्तामर-स्तोत्र का सर्जन आपके अखंड आत्म-विश्वास का द्योतक है । अगर राज-दरवार में उन्हें क्षोभ हुआ होता कि मैं इन वेडीयों को कैसे तोड़ सकता हूँ ? अरे ! ये तो देवता हैं... मे परमात्मा का स्मरण (स्तवना) करूंगा... परन्तु अगर देवता प्रमादवश नहीं आये (प्रत्यक्ष नहीं हुए) तो क्या होगा? ऐसे मनो-मंथन से इस प्रकार के कायर (शिथिल) विचार अगर मन में आये होते तो उनका आत्म-विश्वास डग-मगा जाता... और अंततः इस महान-स्तोत्र का सर्जन... ऐसी महान शासन प्रभावना का सर्जन कदापि शक्य नहीं हो सकता था ।
“विगत त्रपोडहं"-याने विना लज्जा का (निर्लज्ज) ऐसा अर्थ कदापि न करना... कोई बेशर्म गुनाहगार, ऐसा भी अर्थ नहीं करना... परन्तु “विगत त्रपोडहं" याने क्षोभ एवं शरम को दूर करना, ऐसा समझना । “प्रचंड आत्म-विश्वास का स्वामी"-ऐसा अर्थ करना।
• स्तोत्र सजं.
श्री भक्तामर स्तोत्र कालजयी कृति (अमर-कृति) की तरह उत्कीर्ण (पत्थर में तराशी गई) की गई है... कितने ही चिंतन-वीजों का ख्याल गाथा-रहस्यार्थ के रूप में यहाँ दिया गया है... और कितने ही चिंतन-बीजों के विस्तृत विवेचन "श्री भक्तामर-सर्वस्व कृति' में संकलित करने का विचार है | अंतिम श्लोक के चिंतन-बीज का आलेखन कीये विना मेरी अभिलाषा अधूरी रह जायेगी ऐसा लगता है । हृदय की उर्मिओं (भावों) को जब जब वाचा मिलती है, तो शाश्वत सर्जन हो जाता है । अंतिम श्लोक का प्रथम शब्द “स्तोत्र सजं' एवं “लक्ष्मीः '' ये दो मनमोहक शब्दो पर तो श्री भक्तामर के टीकाकार मंत्र-मुग्धसे हो गये है । पू. गुणाकरसूरीश्वरजी म.सा. के समक्ष कोई भक्तामर की टीका उपलब्ध थी ऐसा नहीं लगता और न ही इनके पूर्व किसीने टीका की रचना की हो ऐसा लगता है । पू. गुणाकरसूरीश्वरजी समक्ष कोइ टीका नहीं होने पर भी आपने अंतिम गाथा में जो "रसवैविध्य' बहाया है, उससे मात्र आपकी विद्वता ही नहीं आपकी विशेष प्रज्ञा का सबूत भी मिलता है । “गाया हुआ गाना” उसमें कोई विशेषता या बुद्धिमता की आवश्यकता नहीं होती है । परंतु ऐसा “गाना" की जमाने जमाने तक लोग इसे मुक्त कंठ से गाते ही रहे; ऐसे अनुपम एवं अद्वितीय गाने की रचना विशेष ज्ञान के बिना शक्य नहीं है ।
टीकाकार पू. गुणाकारसूरीश्वरजी म.सा. ने इस अंतिम श्लोक के छह अर्थ किये है । ऐसा लगता है कि आपको कोई दूसरे कार्य की व्यस्तता होगी । इसी लिए मात्र छह अर्थ ही प्रकट करके रूक गये है । आपकी प्रज्ञा इतनी सिमित नहीं थी । परंतु समय की मर्यादा होगी । अतः मर्यादा में रह कर उन्होने विद्वान वाचकों (पाठको) के लिए इन शब्दो में इशारा किया है ।
"अन्योऽपि शुभोऽर्थः सुधीभिः स्वधीया व्याख्येयः"
हे सुधि ! हे ! बुद्धि के बादशाह ! वैसे तो मैंने इसके छह अर्थ किये है । परंतु तुम्हे अपनी प्रज्ञा को, बुद्धि को विकसित कर कई ओर अर्थ करने चाहिए, परंतु इस बात का विशेष ध्यान रखें की जो भी अर्थ आप करे वह शुभ अर्थ' होने चाहिए । ग्रंथकार का अभिप्राय अक्षुण्ण रहे... ग्रंथकार का गौरव बढ़े और पाठक (वाचक) का भी ज्ञान विकसित हो । पाठक कि जीवन दिशा बदल
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रहस्य दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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