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भंडार के व्यवस्थित रहने से इसमें सुरक्षित प्राचीन ग्रन्थों में क्या हैं, इसके बारे में हमें जानकारी मिलती हैं । पाटण के ताड़पत्रीय भंडार में सबसे प्राचीन विक्रम संवत् १३८८ में हस्त लिखित श्री भक्तामर स्तोत्र की प्रत मिली हैं... उसमें भी मात्र ४४ श्लोक ही हैं । इस प्राचीन प्रमाण के आधार पर आज से ६६५ वर्ष पूर्व भी श्री भक्तामर स्तोत्र की ४४ गाथा की ही मान्यता थी ऐसा सिद्ध होता हैं।
• क्या श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ग्रन्थो के भंडार में कहीं ४८ श्लोको के श्री भक्तामर स्तोत्र का उल्लेख प्राप्त होता हैं ?
___ हीर सौभाग्य नाम के ग्रन्थ में श्री भक्तामर स्तोत्र के ४८ श्लोको का उल्लेख हैं, तथा इस ग्रन्थ पर यंत्र, मंत्र एवं आराधना के विधान बनाने वाले पू. हरिभद्रसूरीश्वरजी (प्राचीन काल के हरीभद्रसूरीश्वरजी नहीं) ने भी ४८ गाथा के यंत्र एवं मंत्र बनाये है • तो फिर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में ४८ श्लोक वाले श्री भक्तामर स्तोत्र का पठन-पाठन क्यों नहीं होता हैं ?
श्री भक्तामर-स्तोत्र के ४८ श्लोक हैं, यह बात अलग हैं और ४८ श्लोक पू. आचार्य मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज द्वारा रचे गये हैं, यह बात एकदम भिन्न हैं। जैन श्वेताम्बर के विद्वान आचार्यो का तथा हमारा अपना मत यही हैं कि पू. मानतुंगसरीश्वरजी द्वारा ये चार गाथाएँ नहीं बनाई गई हैं, फिर भी अगर कोई इसका पाठ करना चाहे तो स्तोत्र के बीच में पाट न कर स्तोत्र पूरा होने के बाद पाठ करना चाहिए । इसी लिए इन चार गाथाओं को इस ग्रन्थ में परिशिष्ट के रूप में रखी गई हैं। • क्या जैनेतर विद्वान पंडितों ने भी यह बात निष्पक्ष रूप से कही है कि, ये चार श्लोक आचार्य मानतुंगसूरीश्वरजी द्वारा रचित नहीं है ?
हाँ... निर्णय सागर प्रेस की ओर से वर्षो पूर्व काव्य-माला का सप्तम भाग प्रकाशित हुआ था और उसमें जैनेतर पंड़ितो ने अपना मत स्पष्ट करते हुए कहा हैं कि पू. मानतुंगसूरीश्वरजी की रचना श्री भक्तामर-स्तोत्र में किसी ने ये चार श्लोक जोड दिये हैं... परन्तु जिस प्रकार बेशकिमती रत्नों की माला में जैसे काँच के टुकड़ें शोभा नहीं देते ठीक उसी प्रकार इन चार गाथाओं का स्तोत्र के मध्य में जोड़ा जाना कतई शोभायमान नहीं हैं।
___ तो आप ऐसा ही मानते हैं कि इन चार गाथाओं को किसी अन्य विद्वान पंडित ने बनाई हैं, और उसके तंत्र-मंत्र एवं यंत्र भी बने हैं एवं ये गाथाएँ भी प्रभाविक हैं... फिर भी ये महा-प्रभाविक रचना पू. आचार्य मानतुंगसूरीश्वजी द्वारा रचित नहीं हैं ?
वात एकदम स्पष्ट हैं कि इन चार गाथाओ में पू. मानतुंगसूरीश्वरजी जैसी प्रासादिकता नहीं हैं । इस पूरे भक्ति काव्य में कही भी देखने न मिले ऐसे प्रासों का आयोजन इन चार गाथाओं में करने में आया हैं । हो सकता है की इन गाथाओं के रचनाकार निश्चित रूप से विद्वान होंगें तथा उनके द्वारा रचित ये गाथाएँ प्रभाविक भी होगी... इस बात का हम इन्कार नहीं करते ।।
लेकिन पू. आचार्य भगवंत मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज ने इन गाथाओं का सर्जन नही किया हैं । जिस किसी को भी आचार्य मानतुंगसूरीश्वरजी के द्वारा रचित इस रसमय एवं महा प्रभाविक भक्ति-पूर्ण काव्य के पठन-पाठन की इच्छा (आग्रह) हो, उसे तो अवश्य इन गाथाओं का स्तोत्र के मध्य में पाठ नहीं करना चाहिए।
श्री महा-प्रभाविक भक्तामर स्तोत्र (भक्ति - पूर्ण काव्य) के रचयिता आचार्य प्रवर मानतुंग-सूरीश्वरजी महान शासन प्रभावक श्री "लघु-शान्ति-स्तव" के रचयिता आचार्य प्रवर श्री मान-देव सूरीश्वरजी के शिष्य-रत्न के रूप में माने जाते हैं । मानतुंग सूरीश्वरजीने अपने नाम की सूचना श्री भक्तामर स्तोत्र के अंतिम गाथा में दर्शायी है। - "तं मानतुंग मवशा समुपैति लक्ष्मीः"
• ग्रंथ कर्ता रहस्य इस प्रकार इस महान भक्ति - काव्य में अपने नाम का समावेश क्या नाम की कामना नहीं है ?
'नाम' की कामना और इतिहास का आलेखन दोनों की दृष्टि अलग-अलग है । इतिहास के आलखन की दृष्टि से ग्रन्थकार को अपने नाम का उल्लेख अपनी गुरू-परम्परा का उल्लेख तथा रचना संवत् वगैरह का उल्लेख अपने स्व-रचित ग्रन्थ में करना चाहिए एवं इस- महा-काव्य में कितने श्लोक हैं, उसका भी निर्देशन करना चाहिए । ऐसी इतिहास-संरक्षण करने की परम्परा हमें अत्यंत गौरव के साथ निहारनी चाहिए । . क्या इस प्रकार स्व-रचित काव्यों में अपने नामों के उल्लेख की परम्परा चली आ रही है ?
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रहस्य-दर्शन XXXXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
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