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ऐसे नामों के उल्लेख की परम्परा है ।"श्री तत्तवार्थ सूत्र" कारिका में पूज्य उमा-स्वाति म.सा ने अपने नाम का उल्लेख किया है । "श्री उपदेश-माला' ग्रन्थ में श्री धर्म-दास गणि ने निम्न गाथा में अपने नाम का उल्लेख शब्द के आदि वर्ण से किया है।
"धंत मणि दाम ससि गय णिहिपय पढमक्खराभिहाणेणं ।
उवएसमाल पगरणमिणमो रइअंहियवाए ॥ गाथा नं. ५३७ ॥"
कितने ही ग्रन्थकारों ने अलग "प्रशस्ति' रूप से अपने ग्रन्थो में अपने इतिहास का उल्लेख किया है तो कितने ही ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थ एवं काव्यो के अंत में अपना नाम सूचित किया है । यह परम्परा आज तक चली आ रही है। आप सब जानते ही है कि “भवि भावे देरासर आवो' एवं 'जनारुं जाय छे जीवन' जैसे स्तवनों के अन्दर इनके रचयिता पूज्य दादा-गुरुदेव लब्धिसूरीश्वरजी म.सा के नाम के साथ उनके गुरु पू. कमल सूरीश्वरजी और उनके गुरु पू. आत्मारामजी म.सा. के नाम की सूचना दी जाती है।
मानतुंगसूरीश्वरजी किस समय में हुए ?
साक्ष्य प्रमाणों के अभाव में आचार्य मानतुंगसूरीश्वरजी एवं उनकी यशस्वी रचना का काल निर्धारित करना प्रायः सम्भव नहीं है ।
“पट्टावली समुच्चय' आदि ग्रन्थों में श्री मानतुंग सूरीश्वरजी विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दि में हुए हैं ऐसा उल्लेख है । उनके विषय में लिखी बाण-मयूर की कथाओं के आधार पर विक्रम संवत् की सातवीं सदी का समय जानने में आता है यानि आज से करीबन १२०० से १३०० वर्ष पूर्व ऐसा इतिहासकार बताते हैं । डॉ. हर्मन जेकोबी, श्री हीरालाल रसिकलाल कापडीया, पंडित श्री धीरजलाल टोकरशी, महान इतिहास वेत्ता पंडित श्री कल्याणविजयजी महाराज आदि आपका काल विक्रम की सातवीं शताब्दि का मानते हैं । “जैनेन्द्र सिद्धांत कोष' नामक दिगम्बर प्रकाशन में भी मानतुंगसूरीश्वरजी का काल विक्रम की ११वीं शताब्दि का दर्शाया गया है जो केवल आश्चर्य ही नहीं अपितु भ्रान्तिमय भी है ! हमारा अपना परिशीलन यह बताता है कि पू. आचार्य भगवंत मानतुंग सूरीश्वरजी विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दि में हुए और उन्हें परमात्मा महावीर के १८वीं पट्ट-परम्परा के श्री मान-देव सूरीश्वरजी के शिष्य रत्न मानना चाहिए । हमारे विचार हमने गुजराती रहस्य दर्शन में दिखाये है |
क्या भक्तामर-स्तोत्र के रचयिता मानतुंग सूरीश्वरजी के अलावा और कोई इस नाम के आचार्य हुए है ?
प्रमुख रूप से भारतीय इतिहास एवं समस्त विश्व के इतिहास की ओर एक नजर डालें तो पता चलता है कि किसी समय में जो नाम अत्यधिक प्रख्यात हो जाते है वे उसके आगे के आने वाले समय में ज्यादा प्रचलित होते हैं । इस नाम की परम्परा से महा-पुरूषों की याद सदा के लिए कायम रहती है तथा उनके प्रति श्रद्धा एवं बहुमान प्रकट होता है एवं जीवन में आदर्श की स्थापना होती है।
आचार्य भद्र-बाहु सूरीश्वरजी के नाम के दो प्रख्यात आचार्य हो चूके हैं । भोज के नाम के अनेक राजा हुए हैं । चन्द्रगुप्त नाम के अनेक राजा हिंदुस्तान के इतिहास में हुए हैं । विदेश में भी चार्ल्स, जोर्ज वगैरह नाम के कितने ही राजा हो चूके हैं । कई बार एक ही परम्परा के एक ही नाम काफी लम्बे काल तक चलते रहने से उन विख्यात पुरुषों के नाम के आगे संख्या का उपयोग किया जाता है । उदाहरणार्थ- "जॉर्ज' नाम इंगलेंड को इतना रास आ गया कि पाँच-वंश परम्परा तक यह नाम प्रसिद्धि पाता रहा ।
और फिर उन्हें अनुक्रम से जॉर्ज प्रथम-द्वितीय-तृतीय ऐसी संख्या से जाना जाने लगा । इसी प्रकार मानतुंग सूरीश्वरजी के नाम के अनेक आचार्य भगवंत हुए हैं मगर भक्तामर स्तोत्र के रचयिता के पूर्व मानतुंग सूरीश्वरजी नाम के कोई आचार्य हुए हो ऐसा शास्रों में कहीं उल्लेख देखने में नहीं आता ।
पूज्य मानतुंगसूरीश्वरजी जैसे अन्य मंत्र-सिद्ध आचार्य भगवंतों के नाम उनके स्व-रचित रचना या स्तोत्र के साथ लिखें?
मंत्र-सिद्धि के अर्थ को व्यापक रूप से समझ कर एवं अनेक चमत्कारिक शक्तियों की प्राप्ती की जब हम बात करते हैं तब चरम तीर्थंकर परमात्मा महावीर के प्रथम गण-धर (शिष्य) लब्धि-धारी गौतमस्वामीजी का नाम बड़े ही गौरव से लिया जाता है। वे खुद ही मंत्र-शक्ति के महान प्रयोग-कर्ता थे । उनके जीवन-काल के कुछ प्रमुख मंत्र-सिद्ध चमत्कारों में से एक है.. पन्द्रह-सौ
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रहस्य-दर्शन
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