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२५. बाद में ऋद्धि के १२००० जाप करें । २६. उस के बाद मंत्र के १२००० वार जाप करें। २७. इस प्रकार जाप करने से मंत्र (गाथा) सिद्ध होंगे । २८. मंत्र सिद्ध होने के पश्चात् पंचांग विधि में दर्शित संख्यानुसार जाप करें।
उदाहरणार्थ, अंतिम गाथा की विधि में बताया गया है कि १०८ वार जाप करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, अतः अंतिम गाथा के काव्य-ऋद्धि-मंत्र नित्य १०८ बार गिने ऐसा अर्थ समझें ।
इसी गाथा के कल्प में ऐसा भी बतलाया गया है कि, 'काव्य-ऋद्धि-मंत्र का साड़े बारह हज़ार अथवा पूरा एक जाप छ महीने में संपूर्ण कर के मंत्र सिद्ध करें ।'
इस से समझा जाता है कि १२,५०० यह मंत्र सिद्ध करने हेतु जधन्य संख्या है और उत्कृष्ट संख्या सवालाख की है और रोज की जाप संख्या १०८ की है। दोनों ही आराधना के कल्पों को साथ में सोचने से आराधक को अत्यंत ही सुंदर मार्गदर्शन मिल सकता है ।
•२८ मुद्दों का विहंगावलोकन और पृथक्करण हम ऊपर के २८ महों का पुनः विहंगावलोकन करें । लक्ष्य में रखें कि ये दोनों ही कल्प विशेष आराधना के लिये हैं और विशेष सत्त्ववाले आराधकों के लिये हैं । १. आराधना का स्थान एकांत सूचित किया गया है वह खास ध्यान देने योग्य है । जिन्हें ऐसी विशेष आराधना करनी हो उन्हें
सातिशायी तीर्थों जहाँ जल का समूह प्रचूर मात्रा में हो ऐसे रमणीय स्थान में अपनी आराधना का स्थान एकांत में रखें।
अपनी दैनिक आवश्यकताओं की सुलभता हो उसका भी ख्याल रखें। २. आराधना के स्थान को पोतने का महत्त्व बतलाया गया है वह ध्यान में रखने योग्य है । गाय के गोबर की एक विशिष्ट
प्रतिकारक शक्ति आज विज्ञान ने भी स्वीकार की है । और समस्त कल्प के अनुसंधान से प्रतीत होता है कि जब लगभग (प्रायः) सवालाख जाप ६ माह में पूर्ण करने हो तब रोज के लगभग ६५० जाप तो होने ही चाहिये । परंतु १२,५०० का सारा अनुष्ठान करना हो तो भी रोज के १२५० के हिसाब से १० दिन का अनुष्ठान तो करना ही पड़े। किसी की शक्ति विशेष हो तो तीन दिन में पूर्ण कर सकते हैं । परन्तु सामान्य आराधक के लिये तो १० दिन ही उत्तम समय
कहा जायेगा | अतः आराधक को अपना स्थान पोताने का तथा स्वच्छ रखनेका व्यवस्था कर देना चाहिए। ३. आराधक को देह-विशुद्धि के लिए कहा गया है और ऐसा बतलाया गया है कि आराधक चंदन का विलेपन करें । उस में
देह को शीतल और सुगंधित रखने का हेतु हो सकता है । आराधक सारा वातावरण, देह एवं सामग्री सब कुछ सुगंधमय रखने का ख्याल रखें । आराधना स्थान के ईर्द-गीर्द भी दुर्गन्ध न हों उसका ख्याल रखें । शास्त्रों में ऐसा भी विधान है कि मानव की दुर्गन्ध बहुत योजन तक आकाश में फैलती है इसलिये मानवलोक में इस काल में देवों का आगमन नहीं होता है । दिव्यता के एवं सुगन्ध के सम्बन्ध को समझने के लिये इतनी बात पर्याप्त है। 'पीले वस्त्र पहनना' यह सूचना लक्ष्य में रखने योग्य है । लक्ष्मी की साधना के लिये इन वस्त्रों का खास आग्रह रखा जाता है । अपने वस्त्रों के साथ आराधना खंड में भी पीत वर्ण हो, पीतवर्ण के विशाल कपड़े (दरी इत्यादि) विछाये हों तो आराधना में अधिक सहायक बनता है। इस पांचवे मुद्दे और २३ वे मुद्दे को साथ में सोचने से दीखता है कि चक्रेश्वरी के प्रतिमाजी दक्षिण सन्मुख स्थापित करें जिससे आराधक का मुख उत्तर सन्मुख रह सके । पंचामृत से भरा हुआ घट (कम्भ) १० दिन तक रखना सम्भव दिखाई नहीं देता है अतः घट नित्य भरना और खाली करना योग्य प्रतीत होता है । अथवा केवल शुद्ध जल का ही घट भरना पड़े और उस में भी जीवोत्पत्ति न हो इस लिये चन्दन के तेल का उपयोग सप्रमाणरूप में करना रहा । लोकपालों की स्थापना की बात अत्यंत ही महत्त्व की होनी चाहिये । दीक्षा, पदवी, आदि प्रसंगों में की जाती 'नंदी' की क्रिया में जो महिमावंत स्तवन बोला जाता है उसमें भी सोम-यम-वरूण-वेसमण, वासव आदि लोकपाल का उल्लेख किया है । एवम्
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आराधना-दर्शन
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