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फिर कुछलोग अभी फैशनपूर्वक बोलने के मोह में 'दंत्य स' का उच्चारण भी 'तालव्य श' के रूप में करते हैं । (यथा. 'नमस्कार' के बदले 'नमश्कार' !) मूर्धन्य 'ष' का उच्चारण करनेवाले को ट, ठ, ड, ढ, बोलते समय अपनी जीभ जहाँ लगती है उस स्थान की धारणा कर के जीभ को वहीं लगाने का प्रयत्न करना चाहिये... तभी ही 'ष' का उच्चारण ठीक होगा।
इस के अतिरिक्त भी उच्चारण के समय योग्य पदविच्छेद का ख्याल रखना चाहिये । पुस्तक प्रकाशन करनेवालों को भी चाहिये कि बड़े बड़े समासों में शब्द कहाँ कहाँ अलग पड़ते हैं उस की सूचना शब्दों अलग अलग करके दें । प्रस्तुत ग्रंथ में उसी प्रकार से सूचना की है।
'भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणाम्'
इस प्रकार यदि शब्दों का अलग अलग उच्चारण हो तो शुद्ध कहा जायगा, परंतु यही पद 'भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणाम् इस प्रकार संयुक्त इकट्ठा लिखा गया हो या कोई 'भक्ता-मरप्रण-तमी-लिमणिप्र-भाणाम्' इस प्रकार अलग बोले तो अशुद्ध उच्चारण है । मैं यहाँ तो संक्षिप्त प्रकरण में यह सारी चर्चा में विस्तार से नहीं कर सकता हूँ। परंतु शब्द-जोड और उच्चारण के लिये सावधानी-सजागता रखने की आवश्यकता है।
आज हम लोगों में उच्चारण की जो सावधानी प्रकट हुई है उस के पीछे पू. गुरूदेव की भी कृपा है । वे केवल सूत्रों के ही नहीं, संस्कृत-प्राकृत के ही नहीं, गुजराती के भी उच्चारण शुद्ध हो इस बात के परम आग्रही थे। आखिर हमें शास्त्रकार की उस बात का ध्यान रखने का है कि वंजण-अत्थ-तदुभये' स्वर-व्यजंन का गलत उच्चार और अर्थ की भूल या उच्चारण और अर्थ दोनों ही गलत करना यह ज्ञान का अतिचार है । उस से ज्ञानावरणीय कर्म बंधते हैं । अंग्रेजी भाषा के विद्वान स्पॅलिंग के लिये जो सावधानी रखते हैं वह अव हमारे यहाँ रही नहीं हैं । श्रमण संघ एक आदर्श संस्था है । ज्ञान-ध्यान की गहनता के लिये लोगों को जो श्रद्धा और आस्था है उसे टिकाये रखने के लिये जागृत रहने की आवश्यकता है । आराधक आत्माओं को ऐसी सावधानीपूर्वक अर्थात् आराध्य की प्रबल श्रद्धा रखकर; परम्परा से भी मोक्ष का लक्ष्य रखकर प्रत्येक विधि की कल्प में दर्शाये गये मंत्र-तंत्र सहित आराधना करके, जीवन को प्रसन्नतामय बनाकर के परमानंद की प्राप्ति करने का पुरुषार्थ करना चाहिये ।
__ श्री भक्तामर की आराधना के विषय में इतनी चर्चा हुई । अव प्रश्न उठता है कि क्या इन सभी सूचना के पालन के साथ इस काल में भक्तामर स्तोत्र गिनने में आये तो चमत्कार होगा? श्री भक्तामरस्तव के कल्पों में जो फल लिखा है वह फल मिल सकेगा? इन सभी का प्रत्युत्तर विधेयात्मक ही है, 'हाँ' में ही है। अब तक भक्तामर स्तोत्र का जो महिमा चला आया है उसमें भी कारण इस स्तोत्र की चमत्कारिता ही है । मैंने इस विषय पर इस मुद्दे की चर्चा करने का रहस्य-दर्शन' में अनुकूल समझा है । परन्तु यह वात निःसन्देह है कि इस काल में भी भक्तामर स्तोत्र के पाठ से और इस के कल्पों की आराधना से धार्मिक कार्य सिद्ध होते हैं । श्री भक्तामर स्तोत्र की इस महान सिद्धि के पीछे के रहस्यों का पृथक्करण 'रहस्य-दर्शन' विभाग में होगा । परन्तु यह वात निश्चित ही है कि श्री भक्तामर स्तोत्र की कार्यकारिता अमोघ है ।
• सिद्धि संकल्प आधीना मंत्र के विषय में कहा जाता है कि मंत्र गुप्तरहस्यं' एवं 'मननात् त्रायते इति मंत्रः। उसका नाम मंत्र कि जो मनन करने से रक्षा करे । मुझे तो प्रतीत होता है कि जिसे मनन को समझना हो उसे मन को समझना ही चाहिये । 'मन' स्वयं ही भव्यतम शक्ति के भंडार जैसा है । जिस की आत्मा में पवित्रता है, जिस के वचन में सच्चाई है और जिस के बर्तन में विवेक है उस का मन एक महान शक्ति के रूप में कार्य करता है।
शब्द-शक्ति की एक गोली के साथ तुलना करें तो मन रिवोल्वर-बंदूक जैसा शस्त्र है। आत्मा उससे निर्धारित निशान साध सकता है । मन में यदि सच्चे विचारों का ही आरोपण फीडींग किया हो तो मन संकल्प के अनुसार सिद्धि देता ही है । प्रत्येक व्यक्ति संकल्प के द्वारा अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर सकता है । अतः श्री भक्तामर स्तोत्र का आराधक भी इस स्तव के द्वारा अभीष्ट प्राप्त कर सके उसमें संदेह ही नहीं । मन की इस धारणा और संकल्प शक्ति का विकास करने की निश्चित पद्धति है । जैसे लक्ष्यनिशान-ताकने (साधने) वाला व्यक्ति निरन्तर निशान ताकने का अभ्यास करते करते अपने लक्ष्य का वेध कर सकता है, निशान को साध सकता है, वैसे संकल्प करने की विधि भी नित्य संकल्प करनेवाली आत्मा को हस्तगत होती जाती है और संकल्पानुसार लक्ष्य प्राप्ति होती है।
श्री जयवीयराय सूत्र के दो नाम हमारे यहाँ प्रसिद्ध है : (१) श्री प्रार्थना सूत्र (२) श्री प्रणिधान सूत्र । हमें प्रतीत होता है कि प्रार्थना कव फलित होती है यह वात प्रणिधान का अर्थ जाननेवाले की समझ मे तुरन्त ही आ जाती है । जहाँ तक मन एक महान निधान है ऐसी प्रवल भावना प्रकट नहीं होती है, वहाँ तक मन में निहित-निधान मन का अक्षय भंडार भी प्रकट नहीं होता
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