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तो भी हमारी थकावट बढेगी । पर स्वाभाविक गति से चलने पर आराम रहेगा । ठीक उसी तरह बहुत तेज गति से जाप करने से एक अक्षर की ध्वनि दूसरे अक्षर से दब जाती है और बहुत आहिस्ता जाप करने से दूसरे विचारोंका प्रवेश हो जाता है । अतः जाप को प्राण समान बनाना चाहिए । मध्यम गति से जाप करना चाहिए सामान्यत इस प्रकार मध्यमगति से गिनने पर साधक यदि १२ मिनट में एक बार भक्तामर का पाठ कर ले तो प्रति दिन के छः घंटे यह आराधना करनी पड़े। तीनों संध्या पूर्व का एवं बाद का एक एक घंटा इस का जाप करना चाहिये । तो ठीक बारह वर्ष पर १,२९,६०० (एक लाख उनतीस हजार छसौ) जाप हो जायेगा ।
यदि उग्र आराधक हो तो रोज के ६० बार भक्तामर गिनकर ६ वर्ष में इतनी आराधना पूर्ण करें।
और उपांशु रूप से और भी शीघ्रता से आराधना करनी हो और चार मिनट में यदि एक भक्तामर पूर्ण करें तो चार वर्ष में यह आराधना पूर्ण होती है । प्रति दिन के छ: घंटे यथासमय देना जाप करना गृहस्थ के लिये असंभव है । तो उस से अधिक घंटो की गिनति करने का सवाल शायद ही उपस्थित होता है । फिर भी यदि कोई उग्र और अति साहसिक आराधक हो तो प्रतिदिन के ६ घंटे के बजाय रोज के १२ घंटे जाप करें और चार मिनट में ही एक भक्तामर पूर्ण करें तो उस की आराधना भी दो वर्ष में पूर्ण हो सकती है । परन्तु आराधना के दौरान पाठ का क्रम थोड़ा विशिष्ट रखना चाहिये । अर्थात् पहेली वार १ से ४४ गाथा का पाठ करें और दूसरी वार ४४ से १ गाथा पुनः गिनें और तीसरी बार पुनः १ से ४४ वार गिनें । इस प्रकार तीन तीन पाठ की एक ईकाई गिनें और रोज ऐसे १० से २० गुच्छे गिनने का निश्चित रखें।
तीन की संख्या का भी विशिष्ट महत्त्व है । विश्वतत्त्व की गहनता को समझने के लिये संख्या का भी रहस्य समझने योग्य है । हमारे यहाँ एक बार, दो बार और तीन बार बोलने के बाद ही सभी बोलियों का आदेश देने की प्रणालि व्यापक है । दीक्षा, व्रत, इत्यादि का उच्चारण भी तीन बार करने में आता है । मंगल कार्य में भी तीन नवकार गिनने का विधान है । इस प्रकार आराधक के लिये आवश्यक है कि वह भक्तामर की आराधना में तीन की संख्या को समाविष्ट कर लें । यद्यपि इस "तीन' के विषय में बहुत विस्तार से लिखा जा सकता है, परन्तु संक्षेप में कहें तो सत्त्व-रजस् और तमस् इन तीन गुणों की व्यापक मान्यता है । वातपित्त-कफ; इस त्रिदोष की समस्त वैद्यक शास्त्र में व्यापकता है | आराधक को लक्ष्य में रखना है कि उसे अपनी आत्मा और शरीर को सत्त्व-रजस्-तमस् जैसे गुणों से या वात-पित्त-कफ के दोषों से मुक्त रखना है ।
क्षायोपशमिक गुणों से गुणातीत एवं औदयिक भाव के दोष से अतीत होकर आत्मा को अपने सहजस्वभाव में स्थिर होना है । ऐसे भव्य लक्ष्य की अनुप्रेक्षाएँ आराधक को करनी चाहिये । ऐसी अनुप्रेक्षाएँ कभी गुरू के अनुग्रह के द्वारा प्रगट होती हैं, तो कभी ऐसे ही स्तोत्र की आदरपूर्वक आराधना करने से स्फरणा के रूप में प्राप्त होती हैं। आराधना के क्षेत्र मे आराधक को शास्त्र, गुरू-आम्नाय और स्वानुभव तीनों के मर्म तक पहुँचना है।
कलिकालसर्वज्ञ श्री. हेमचन्द्राचार्य महाराज ने अपने योगशास्त्र की रचना को इस त्रिपदी से निर्मित बतलाई है । हमें भक्तामर से भी मानतुंगसूरि महाराज ने संकेत की हुई आराधना की-साधना की; त्रिपदी की पहचान करनी है |
आगम हमें अगम्य प्रदेश में विचरण करने-विहरने का सहयोग प्रदान करते हैं । महापुरुषों का गुरूजनों का संप्रदाय हमे उनकी अनुमतिओं की झलक देते है । तो स्वानुभव उस अगम्यता को आत्मसात् करता है । इस प्रकार सृष्टि के रहस्यों को चैतन्य से प्रकट करने में इस साधना त्रिपदी का अनन्य प्रदान है। और स्तोत्र (द्रव्य) भाव-निक्षेप के रूप में है। इस स्थान पर ध्यान देने योग्य है "त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र'' में आचार्य देव श्री हेमचन्द्राचार्य निर्दिष्ट महामंगल :"नामाकृति द्रव्यभावैः पुनतस्त्रिजगत्जनम् ।
क्षेत्रेकाले च सर्वस्मिन् अर्हतःसमुपास्महे ॥" आराधना चारों निक्षेप से होनी चाहिये, चार निक्षेपमयी बननी चाहिये । यह बात ऐसे ग्रंथो के दोहन से समझी जाती है।
इस प्रकार भक्तामर संपूर्ण स्तोत्र की आराधना करनेवाले को चाहिये कि वह सवा लाख की संख्या को लक्ष्य में रखकर पूर्वदर्शित प्रकार से आराधना करे । परन्तु जो लोग सवा लाख भक्तामर गिनकर स्तोत्र को सिद्ध करने के लक्ष्यवाले नहीं है उन्होंने भी भक्तामर की अपनी नियत संख्या के समय भी भक्तामर की आराधना सम्बन्ध में किस जप को स्थान दिया जाय एवं किस प्रकार का ध्यान भक्तामर की आराधना के ध्यान के रूप में अपनाया जाय ये दो बातें भी निश्चित करनी चाहिये ।
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आराधना दर्शनXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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