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अप्रमत दशा में मंत्र, विद्या या लब्धि के प्रयोग का निषेध है । प्रमत्त अवस्था में मंत्र, विद्या या लब्धि का प्रयोग होता है। पत्त अवस्था में भी शासन की, धर्म की या चतुर्विध संघ की कोई भी प्रकार की या तीर्थ-जिनालय आदि की रक्षा के लिए मंत्र विधान का आदेश है । प्रमत्त दशा में भी मात्र स्वयं के स्वार्थ के लिए मंत्र का विधान नहीं है । परन्तु स्वयं के स्वार्थ के लिए परम्परानुसार मोक्ष लक्षिता से मंत्र की आराधना करने का विधान है। साथ ही मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत निरपेक्ष भाव से आराधना की जाये तो उसका निषेध करने में आया है । वैसे किसको और कब मंत्र का उपयोग करना या न करना यह प्रश्न व्यक्तिगत आत्म उत्थान एवं मनोबल की भूमिका पर निर्भर करता है । परन्तु मंत्र का उपयोग जैन शासन मे नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
मंत्र के अधिष्ठायक देव ही ज्यादातर प्रसन्न होकर चमत्कार करते रहते है तो साधुओं को किस लिये मंत्र आराधना करनी चाहिए?
मंत्र आराधना याने सम्यक्दृष्टि देवों की आराधना... यह बात तो सिद्ध ही है ।
आगे हम चर्चा कर चुके हैं कि मंत्र के अधिष्ठायकों द्वारा भी कार्य सम्पन्त होते है... यह बात सत्य है । साधु भगवंत छठे गुण-स्थानक में विराजमान होते है, और देव तो ज्यादा से ज्यादा चौथे गुण-स्थानक में विराजते है... यह बात भी सत्य है । फिर भी सुविहित साधु भगवंत मंत्रो की आराधना करते है, यह बात आगे के पृष्ठों मे दिखाई गयी है । देवों की आराधना, देवों का विनय एवं देवों की आशातना का त्याग यह तीनों विषय समझने योग्य है ।
देवों (सम्यकदृष्टि या मिथ्या दृष्टि) की आराधना याने कोई भी देव परमेष्ठि है तथा उनकी परमेष्ठिरुप में उपासना करनी चाहिए... ऐसा अर्थ नहीं हैं और ऐसा अर्थ करना भी नहीं चाहिए । मात्र उनके (देवों) के मन का आवर्जन (आकर्षण) करना है । उनको स्वयं की साधना के लिए तथा उनके कर्तव्य के लिए जागृत रखना है । मंत्र सिद्धि करने वालों को देवों की परमेष्ठि रूप से उपासना करने की जरूरत नहीं रहती... परन्तु वे देव महाशक्तिवाले तथा परम पुण्योदय का उपभोग करनेवाली आत्मा है... इसीलिए उनके प्रति मानसिक अनुमोदना एवं आदरभाव रख कर उनकी आराधना भी साधु भगवंत खुशी से कर सकते है । अगर ऐसा नहीं होता तो देवलोक को प्राप्त साधु-भगवंतों की हम कैसे पूजा पढ़ा सकते है । “एक तरफ तो देवलोक में गये गुरू भगवंतो की अष्टप्रकारी पूजा करते है, और दूसरी तरफ सम्यक्दृष्टि देवों की आराधना की मनाई करते है, तो हमारी यह बात स्वयं विरोधी है (विरोधाभासी है)।"
जिन साधुओं को देवों की आराधना की जानकारी नहीं है वे जहाँ-जहाँ "देवाय नमः या देव्यै नमः'' पद आता है वहाँ स्वयं
वंदन करते हो ऐसा आचरण करते है... स्वयं उनको वंदन करते हो ऐसा भाव धारण करते है । इस प्रकार से देवों का विनय अवश्य अयोग्य है । इसीलिए साधु भगवंतों को जहाँ-जहाँ भी देव देवी के शब्द के साथ "नमः' पद का प्रयोग होता हो वहाँ औचित्य पूर्वक "धर्मलाभ'' ऐसा अर्थ करना चाहिए। साथ ही जो श्रावक सामायिक या पौषध अवस्था में हो उनको भी औचित्य पूर्वक “अनुमोदना" ऐसा अर्थ करना चाहिए ।
परन्तु देव-देवीयों की आशातना किसी भी प्रकार से नहीं करनी चाहिए । आराधना के लिए तो सम्यकदृष्टि देवों या योग्य स्थान पर नियुक्त देवों का विनय करना यह मान्य रखने में आया है । साथ ही आशातना वर्जन के लिए तो मिथ्यात्वी देवों की आशातना का वर्जन भी करना जरूरी है... जैसे प्राणी मात्र के प्रति तिरस्कार वर्ण्य है, ठीक वैसे ही मिथ्यात्वी देवों की आशातना का वर्जन हमें अवश्य करना चाहिये, चाहे उनकी आराधना की हमें आवश्यकता न हो ।
अतः मंत्रों की सिद्धि साधु वर्ग करते है, और जहाँ तक जिन शासन है... तब तक मंत्रों की आराधना होती ही रहेगी।
अमारि प्रर्वतन जैसे महान कार्यों के लिए एवं महान जन्म कल्याणक आदि महोत्सवों के लिए साधु-भगवंत भी श्रावकों को औचित्य पूर्वक आवर्जित करते हैं, तथा श्रावकों के शासन प्रभावक कार्यों की साधु भगवंतों द्वारा भी उपद्व्हा प्रकार देवों का भी औचित्य पूर्वक “आवर्जना' एवं “उपबृहणा” साधु भगवंत करते है, और ऐसा करना साधु भगवंतों का आवश्यक कर्तव्य है।
उपरोक्त सब बातें मान लें तो आज-कल के आचार्य भगवंत एवं साधु भगवंत मंत्र सिद्धि के द्वारा चमत्कार क्यों नहीं करते ?
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