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है एवं अनेक अर्थो को समावेश करने की पूर्ण कोशिश होती है । • ये सब बात तो ठीक है, परन्तु कितने ही मंत्र एवं तंत्र मात्र अर्थ और काम की सिद्धि के लिए होते हैं और उन मंत्रों में भी स्पष्ट
रूप से सिर्फ अर्थ और कामके फल की ही मांग की जाती है... तो ऐसे मंत्रों की आराधना कैसे कर सकते है ?
तुम्हारी वात विलकुल सत्य है । कितने ही मंत्रों में स्पष्ट रूप से अर्थ एवं काम की मांग की गई है.. परन्तु जिनका आराधक भाव जागृत हुआ हो.. और उनको उसकी जरूरत पड़ती हो.. तो वे ऐसे मंत्र की आराधना भी करते हैं । खास कर संपत्ति की वृद्धि के लिए एवं आफत या कष्ट निवारण के प्रति आराधकों का ज्यादा ध्यान होता है । परन्तु ऐसी आराधना "जयवीयराय सूत्र'' में इप्ट-फल सिद्धि की मांग जैसी है । इस सूत्र में भव-निर्वेद एवं मार्गानुसारी को टिकाएं रखने के लिए अर्थ एवं काम की तथा अर्थ एवं काम के साधनों की मांग होती है । यदि मोक्षार्थी को सापेक्ष भाव सहित भी इष्ट सिद्धि की मांग को निराश करने में आवे तो आराधक आत्मा दंभी बन जाती है तथा वीतराग-देव को छोड़ मिथ्या देवों के शरण में चली जाती है । इसीलिए औचित्य एवं विवेक यह सर्व शास्त्र का शास्त्र है ऐसे औचित्य एवं विवेक के साथ ही इष्ट फल की सिद्धि के लिए प्रयास करना चाहिए । • भले आप कैसे भी समझाए परन्तु हमारे दिमाग में यह बात बैठती ही नहीं कि मंत्र साधना करनी चाहिए ?
मेरा या कोई भी गुरू का प्रयत्न संशय दूर करने का होता है । संशय दूर करने के लिए मात्र प्रामाणिक बातें मैनें समझाई हैं । शासन की स्थापना के इतिहास से आज तक के आचार्यों की बात तुम्हारे मस्तिष्क में अगर न पहुँचे तो तुम्हें खुद विचार करना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है ? हम तो यही समझते हैं कि कोई भी संशय को ज्ञान से दूर कर सकते हैं परन्तु दुराग्रह को कोई भी दूर नहीं कर सकते । इस विषय का दुराग्रह दूर होगा तो तुरन्त ही मंत्र सिद्धि के मार्ग की महत्ता समझ सकेंगे ।
समझ लो कि मुझे मंत्र सिद्धि के मार्ग की महत्ता समझ में आ गई.. तो क्या मुझें मंत्र सिद्धि करना जरूरी है ? मेरा मन सिवाय नवकार मंत्र के और कोई मंत्र गिनने को नहीं मानता.. तो क्या नवकार के अलावा दूसरे मंत्र भी मुझे गिनने चाहिए ?
नहीं ! तुम्हें एक बार मंत्र सिद्धि के मार्ग की महत्ता समझ में आ गई है । प्रत्येक मंत्र का अपना अलग-अलग महत्त्व एवं प्रभाव है... यह बात सापेक्ष भाव से समझ लेने के पश्चात् तुम कोई मंत्र की आराधना करो या न करो यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है । परन्तु मंत्रों एवं यंत्रों की सिद्धि का मार्ग तो शासन मान्य ही है ।
कितने ही लोग ऐसा मानते हैं कि मंत्र साधना की विधि, मंत्र-तंत्र-यंत्र वगैरह ज्यादातर बौद्ध एवं हिन्दु धर्म में से जैन धर्म में आई है... तो उनको हम क्यों न माने ।
जितने लोग हैं; वे उतनी बाते कहते है परन्तु हमें अपना निर्णय अपनी बुद्धि से लेना चाहिये । इतिहासकारों ने भी इतिहास में कई अनुमान लगाये है... जिनमें से कितने ही बाद में गलत सिद्ध हुए हैं । इसी लिए लोगों की धारणा मात्र से ऐसा मान लेना मंत्र-तंत्र-यंत्र आदि सब कुछ अन्य धर्म में से ही जैन धर्म में आये हैं - यह गलत हैं । • तो क्या सब इतिहासकारों के अनुमान का कोई आधार नहीं है ?
इतिहास की पद्धति बहुत ही सावधानी पूर्वक समझने की जरूरत है । हमने ऐसे कितने ही इतिहासों को अप्रमाण सिद्ध होते देखें हैं । कोई एक परंपरा के ज्ञान-ध्यान के ग्रन्थो से कोई भी दूसरे धर्म या धर्म ग्रन्थों की परंपरा अवश्य प्रभावित होती है । देशकाल को लेकर होते परिवर्तन को कोई रोक नहीं सकता । कोई एक काल में एक परंपरा में कोई एक वस्तु प्रचलित हो जाती है तो उसके सामने दूसरी परम्परा अपने तरीके से प्रचार एवं प्रसार तो करती ही है । अर्थात् बौद्ध तथा हिन्दु मंत्र परम्परा प्रचुर काल में जैन धर्म मे भी मंत्रों की सिद्धि प्रचुर मात्रा में की गयी । इतने मात्र से सब मंत्र एवं पद्धतियां जैन पद्धति नहीं हैं । ऐसा नहीं कहा जा सकता । कारण कि उस समय के गीतार्थ आचार्य भगवंतों ने जैन शास्त्र का मंथन कर उसमें रही हुई सूचना को ही प्रकाशित किया था । अतः जैनों में मंत्र परंपरा नहीं है... ऐसा कहना जैन शास्त्र के अवगाहन का अभाव है । इसी लिए पू. सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने कहा है कि परतंत्र में एवं पर धर्म में भी जो सुक्ति संपदा हैं तथा जो अच्छी बाते है.. वे जिनेश्वर भगवान रूप महासमुद्र में से उछल कर गई हुई हैं । वैसे जैन धर्म की व्यापकता की दृष्टि पर सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी द्वारा फैलाये हुए प्रकाश पर हम नजर डालेंगे तो हमारा कोई भी प्रश्न प्रश्नवाचक नहीं रहेगा ।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX रहस्य-दर्शन
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