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लक्ष्मी अपने आप ही, काम से विह्वल बनी हो ऐसी; “मानतुंग" के स्वयं के विशाल मान से शुशोभित सर्व-लक्षणों से युक्त शरीर वाले को दूर से आकर सहज ही मील जायेगी...
इसी प्रकार पू. मानतुंगसूरीशजी महाराज की ये रूचिर वर्ण वाली - विविध पुष्पोवाली माला को हम सब अपने कंठ में धारण करें... और इस अमूल्य मानव-जीवन को धन्य बनायें... बस ! ऐसा हो जाए तो हम भी “मानतुंग" बन जायेंगे... ऐसे मानतुंग बने कि सर्वज्ञ एवं वीतराग ही हमारे आराध्य देव हों... ऐसा अपना मान, धर्म-गौरव, अक्षुण्ण रहे... ऐसे "मान' से हम "तुंग' बनें... उच्च बनें!
कि पाँच महाव्रत को धारण करने वाले गुरु भगवंत ही हमारे जीवन-पथ के पथ-प्रदर्शक बनें... अपना मान-नियम-मर्यादा सदैव बनी रहे... ऐसे ही हम तुंग बने । में प्रतिदिन इस महा प्रभाविक... महा मांगलिक... श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ करूगा.. प्रतिदिन प्रातः इस स्तोत्र का भावपूर्वक पाठ कर ही पानी ग्रहण करूंगा... नित्य परमात्मा की पूजा करूंगा... एवं नमस्कार महा मंत्र की एक माला अवश्य गिनुंगा ।
ऐसे नियमों को में किसी भी कारण से... या किसी भी परिस्थिति में भंग नहीं करूंगा... ऐसे नियमों के पालन में, मैं किसी प्रकार की लापरवाही या प्रमाद नहीं करूंगा... ऐसा "मान" ऐसी दृढता रख कर हमें “तुंग" यानी उच्च बनना हैं । दृढव्रती बनना है ।
ये भक्तामर का अजस्रं-नित्य पाठ करने वाले को भले कितना ही मान मिले फिर भी वह अपनी श्रद्धा अपनी दृढता में तुंग-उच्च रहेगा । वह पल पल प्रसन्नता से प्रशांत ही रहुंगा । मनःशांति एवं वीतरागता रूप लक्ष्मी अवश्य प्राप्त होगी ।
पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज की इस महान प्रभाविक... महा मांगलिक... श्री भक्तामर स्तोत्र की अमर कृति को अजमाओ... और जीवन पथ में सफलता प्राप्त करो । यहाँ luck by chance नहीं है... यहाँ तो turn your luck and be god... "तुम्हारा भाग्य बदलो । और तुम भगवान बनों" ऐसी विक्रमी ललकार है. ऐसा ही जिनराज का सनातन यश निनाद है।
(. गाथा संख्या-रहस्य.
श्री भक्तामर स्तोत्र कितनी गाथा का हैं... यह प्रश्न आज हम सब को असमंजस में डाल रहा हैं... क्या पूज्य मानतुंगाचार्यजी ने इस स्तोत्र की ४४ (चौवालीस) गाथा ही रची थी? अगर ४४ गाथा की ही रचना पू. मानतुंगसूरीश्वरजी ने की थी तो वर्तमान में ४८ गाथा का भक्तामर स्तोत्र क्यों उपलब्ध है ?
४८ गाथा वाले भक्तामर स्तोत्र में गाथा नं. ३२,३३,३४,३५ पू. मानतुंगसूरीश्वरजी द्वारा रचित नही हैं... इस लिए ये बढ़ाई गई गाथा हैं । साहित्य में इन बढ़ाई गई गाथाओं को “प्रक्षिप्त गाथाएँ" कहने में आता है ।
अच्छा हुआ कि आपने हमें बढ़ाई गई गाथाओं के क्रमांक की जानकारी दी, नहीं तो हम यही मानते थे कि ४४ गाथाओं के बाद की ४५,४६,४७ एवं ४८ गाथा ही बढ़ाई गई गाथा हैं... भले ऐसा ही हो परन्तु ये चार गाथा पू. मानतुंगसूरीश्वरजी द्वारा रचित नहीं हैं, ऐसा हम कैसे कह सकते हैं ?
श्री भक्तामर स्तोत्र के महत्त्व को जिन संस्कृत टीका (विवरण) में दर्शाया गया हैं, उन टीकाओं में सबसे पुरानी टीका पू. आचार्य गुणाकरसूरीश्वरजी महाराज की हैं... जिसकी रचना विक्रम संवत् १४२६ में की गई थी... आज से ६२७ वर्ष पूर्व रची गई थी । उस टीका में ४४ गाथा का ही विवरण मौजूद हैं... परन्तु इसके अलावा इन चार अधिक गाथाओं का विवरण या उल्लेख उपरोक्त टीका में कहीं पर भी मौजूद नहीं हैं ।
क्या ऐसी कल्पना हम नहीं कर सकते कि इस स्तोत्र की मूल गाथा तो अड़तालीस (४८) ही थी, परन्तु गुणाकरसूरीश्वरजी ने कदाचित् इन चार गाथाओं को अपनी टीका में से निकाल दिया हो ?
यह बात इस लिए शक्य नहीं हैं कि इन चार गाथाओं में ऐसी कोई बात नहीं हैं कि पू. गुणाकरसूरीश्वरजी के मत का या कोई भी, जैन संप्रदाय के मत का खंडन करती हो... इस लिए पू. गुणाकरसूरीश्वरजी या उनके पूर्व के आचार्यो ने ४८ में से चार गाथा कम कर दी हो... यह बात असंभव सी प्रतीत होती हैं ।
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रहस्य-दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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