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जाती । धन दे देने से या उसका उपयोग कर लेने मात्र से नहीं, अरे ! दान देने से दानवीरता आती है। परन्तु उदारता तो बहुत महंगी है | दान, लेने वाले मानवी को फिर कभी किसी से दान न लेना पड़े; ऐसे विशुद्ध भावों की उछाल मन-मस्तिष्क में दान देते वक्त आवे तो उदारता ! “आज मैं तुझे दान देता हूं, परन्तु तूं समस्त विश्व को दान देने में समर्थ बन ऐसी उदात्त एवं भव्य - भावना आवे वही सही मायने में उदारता है ।
पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज ने "काव्य-विज्ञान" के साथ-साथ "जीवन साफल्य विज्ञान" की ओर भी ईशारा किया है। क्योंकि वे तो बहुत ही उदार मना थे। उनकी मार्मिक बातें "हृदय तल" को स्पर्श करने वाली हैं। उनके शब्दों एवं शब्दों का । आयोजन वास्तव में “चित्तहर" है । उनका आशय, उनका भाव, हकीकत में बहुत ही उदार हैं ।
। विगत त्रपोऽहं
गुजराती भाषा बहुत ही कमनीय है, मनोहर है। बचपन में यह मुहावरा सुना था "शरमाय ते करमाय" शरमाने वाला या शरम में रहने वाला कभी अपने दिल की बात किसी के समक्ष कह नहीं सकता। कभी वह जीवन के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता । उसका जीवन, पुष्प की पंखुड़ियों की भांति गर्मी से मुरझा कर शुष्क बन जाता है। जिसको जीवन में मुरझाना न हो, जिसको जीवन में रसिकता फैलानी हो, जिसको जीवन का जंग को जीतना हो, उसको शरम छोड़नी ही पड़ेगी ।
एवं "लाज शरम इन दो शब्दों का उपयोग किया जाता है। पर "लजाना और शरमाना" ये दोनो अलग चीज है। स्वयं ने 'गुनाह किया हो या स्वयं का व्यक्तित्व कमजोर हो तो मानव लज्जा का अनुभव करता है परन्तु जब उसे लगता है कि “कोई मुझे क्या कहेगा ऐसी विचार जब मनमस्तिष्क में उठता है, तब उसे शरम आती है। सभा में से उठ कर स्वंय के लिए कोई चीज मांगनी हो तो मनुष्य लज्जा का अनुभव करता है परन्तु किसी को दो शब्द अच्छा कहना हो, फिर भी कह नहीं पाता, तो इससे साफ है कि उसे कहने में शरम आ रही है । " ऐसी शरम आत्म विश्वास के अभाव में ही आती है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज ने “विगत त्रपोऽहं” के नाद (घोष) में, मैं आत्म-विश्वास की ललकार सुन रहा I पू. मानतुंगसूरीश्वरजी ने मानव मात्र के इस स्तोत्र के माध्यम से आत्म-विश्वास को जगाने का आह्वाहन किया है । क्यों डरते हो इस जगत से ? इतना ज्यादा क्षोभ का क्यों अनुभव करते हो ? इतनी ज्यादा शरम क्यों रखते हो ? हे मनुष्य ! तैयार हो जाओ जगत के संग्राम में यहाँ सिर्फ सफलता उसे ही मिलेगी जो आत्म-विश्वासी हो। एक बार जब आप अपने शरम के पर्दे को हटा दोंगें तब जगत एवं जीवन के इस महा-संग्राम में विजयी हो जाओगे । आपने पृथ्वी जगत को एवं वनस्पति-जगत को कभी ध्यान से देखा नहीं है । यहाँ हजारों वर्ष के वृक्ष खुद की खोखली जड़ों को जमीन में गढ़ाए बैठे हैं । फिर भी नये अंकुरित होने वाले अंकुरों को क्षोभ होता है क्या ? भले हो पहले महा-कवियों ने महान - स्तोत्र की रचना कर प्रसिद्धि प्राप्त की हो । परन्तु मानतुंगसूरीश्वरजी फरमाते हैं कि मेरे हृदय में जो काव्य को प्रस्फुटित करने का अकुंर फूटा है, तो क्या उस अंकुर को दवा देना चाहिए ? क्यों उन विशाल काय वृक्षों से लज्जाना चाहिए ? प्रचंड आत्म-विश्वास से रची हुई गाई हुई कविता (काव्य) है "भक्तामर " जिसके पास पूर्ण पूर्व तैयारी है। उसको क्षोम करने की, डरने की, या शरमाने की जरूरत नहीं है। मनुष्य अक्सर कहा करता है कि मुझे लोगों से डर लगता है, मुझे लोगों से शरम आती है, परन्तु हकीकत में उसे अपने अधूरेपन से ही डर लगता है । इसे अपने-आप में आत्म-विश्वास की कमी की झलक नजर आती है। हमें क्यों जीवन में आत्म-विश्वास विहीन बनना चाहिए । तीर्थंकर की आत्मा मोक्ष जाने के तीन-भव पूर्व वे तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करते हैं। भले ही दूसरी आत्माएं उसी भव में मोक्ष को प्राप्त करती हों, परन्तु तीर्थकरों को तो सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद तीसरे भव में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, तो इसमें क्षोभ किस बात का ? "गति है तो मंजिल मिलेगी ही" एक महान चिंतक ने किसी को उसकी सफलता का रहस्य पूछा, उसने जवाब में कहा कि, "मेरी प्रत्येक निष्फलता को मैंने सफलता नहीं मानी परन्तु, सफलता की सीढ़ी पर अग्रसर होने के लिए पावडी की तरह उपयोग किया। शरम को दूर करने से लोभ को लांघने से निष्फलता को निष्फल करने की शक्ति प्रकट होती है। महान कवि-रत्न पू. मानतुंगसूरीश्वरजी के भावों को स्पष्ट करने के लिए पू. मेघविजयजी उपाध्याय ने अपनी टीका में खुलासा किया हैं
अत्रायं हेतुहेतुमद्भावः, यतोऽहं विगतत्रपो ।
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अतः बुध्या विनाऽपि स्तोतुं समुद्यत मतिरस्मि ॥
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रहस्य- दर्शन
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