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शास्त्र क्या है ? काव्य-शास्त्र शब्दों के सौंदर्य (अलंकार) के साथ-साथ अर्थ के चातुर्य (चतुरता) का आयोजन है । शब्द तो बहुत हैं पर अंतरको उजागर (प्रकाशित) करने वाले शब्द चाहिए।
“मणि' एवं “रत्न' दोनों शब्दों का अर्थ व्यापक है, उदार है । परन्तु “मणि" शब्द चित्तहर है । इसी लिए उदार अर्थ को भी चित्तहर-शब्दों के द्वारा व्यक्त करना यह काव्यकार की विशेषता है । अरे ! “चित्तहर" शब्द के बदले “चित्ताकर्षक" शब्द भी कहा जा सकता है । परन्तु, “चित्तहर" शब्द में जो मनोहरता (मन-मोहकता) है, वह “चित्ताकर्षक" शब्द में कहाँ ? सहजरूप से बोला जाय, सहजरूप (सामान्यरूप) से समझ में आये तथा अर्थ का भी भ्रम पैदा न करे ऐसे शब्द ही “चित्तहर” शब्द होते हैं । श्री भक्तामर स्तोत्र में प्रयुक्त एक-एक शब्द भी खोज (Research) करने वाले समझ सकते हैं कि इस सार-गर्भित स्तोत्र में “चित्तहर" शब्द को प्राधान्यता दी गई है । “सर्व' शब्द से “सकल" शब्द कहीं ज्यादा “चित्तहर' है । “सुरविश्व" या “धुनाथविश्व" से भी “सुरलोक' शब्द अत्यधिक मनोहर है, मन भावन है, मन मोहक है । वैसे उदार अर्थ को चित्तहर शब्द कहने की कला मात्र काव्य-कला ही नहीं, जीवन-कला भी है ।
कितने ही महानुभावों का आशय (मतलब) बहुत अच्छी बात करने का होता है, परन्तु शब्दों की पसंदगी (चयन) मार खा जाती है । ऐसे मनुष्यों की हमेशा यह फरियाद (शिकायत) रहती है, कि हम तो सच-सच कहते हैं, फिर भी हमारी कोई सुनता ही नहीं । शब्द-कोष का सर्जन किस लिए है ? सच भी सलीके (अच्छी तरह) से बोला जाये, मिठास से बोला जाये, इसीलिए शब्दकोष की महत्ता है | जो बात न समझ में आये उसे अटपटी बात कहना “चित्तहर' शब्द की रजुआत हैं परन्तु इसी बात को सर फोड़ने वाली बात कहें तो “चित्तहर" के बदले “चित्तनाशक" बन जाती है । इसीलिए ही जीवन में अच्छे शब्दों (चित्तहर शब्दों) का संचय करो । गुजराती भाषा में कहावत है कि “बोलता न आवड़े तो जरूर बोळे' कहने का तात्पर्य है कि जिसको बोलना नहीं आता है, वह अवश्य बात बिगाड़ देता है । चित्तहर शब्द नहीं हो और आप बोलने जाओगे तो बोल कर बिगाड़ोंगे ही । एक ज्योतिष शास्त्र के पंड़ित ने एक सज्जन के बारे मे भविष्यवाणी की, कि तुम्हारी नजर के सामने तुम्हारे सब स्वजन मर जायेंगे, और तुम उन स्वजनों के वियोग की महा-पीड़ा से व्यथित हो जाओंगे । इसी भविष्यवाणी को दूसरे ज्योतिषी ने चित्तहर शब्दों में व्याख्या की, कि “तुम्हारे समस्त परिवार में तुम्हारे जैसा दीर्धायु (दीर्ध-जीवी) कोई नहीं है, तुम्हारे परिवार के सभी स्वजन तुम्हारे आशीर्वाद (आशीष) के साथ परलोक सिधारेंगें' दोनों ज्योतिषीयों के कहने का आशय तो एक ही है, अर्थ भी एक ही हैं, परन्तु एक “चित्तहर" मन-भावन तरीके से शब्दों को व्यक्त करता है, जब कि दूसरे पंड़ित की भाषा चित्त को चीरने वाली लगती है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी की सीख हैं कि देवाधिदेव परमात्मा की स्तुति, भक्ति तो चित्तहर शब्द से की जानी चाहिए । पर जीवात्मा के प्रत्येक छोटे-बड़े जीवों को, एवं पापी तथा अपराधियों को भी मन-भावन “चित्तहर" शब्दों से ही सम्बोधित करना चाहिए । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी के “चित्तहर" शब्द एवं उदार अर्थ की बात में बहुत गहरायी है । शब्द तो चित्तहर होने ही चाहिए, साथसाथ शब्दों का आयोजन भी चित्तहर होना चाहिए तथा शब्दों के आयोजन के पीछे आशय भी चित्तहर होना आवश्यक है । शोकमय अशुभ समाचार देते वक्त कितनों का आशय शोक-समाचार के साथ-साथ-सांत्वना देना होता है । तो कुछ लोगों का आशय शोकमय समाचार देते वक्त हृदय को अत्यधिक दुःख पहुँचे ऐसा भी होता है । जहाँ तक हृदय में प्राणी-मात्र (जीव-मात्र) के प्रति सन्मान भाव (Reverance of Life) न जगे, तब तक चित्तहर शब्द, वाणी या विचारों में आ नहीं सकते । इसी लिए चित्तहरण का सर्जन करने के लिए सबसे पहले मनुष्य अपने आप को उदारमना बनाना जरूरी है | काव्य-शास्त्र में “उदार" का अर्थ विशाल एवं व्यापक भले ही हो, परन्तु जीवन-शास्त्र में उदार का अर्थ है “स्वार्थ का संहार" । जब तक मनुष्य में स्वार्थ का सर्जन है तब तक उदारता आने की कल्पना करना शक्य नहीं है । जहाँ तक मैं और मेरा तथा तेरा एवं मेरा का लगाव है, तब तक उदारता आ नहीं सकती। एक संस्कृत कवि ने कहा हैं कि “अयं निजः परो वेति, गणना लधुचेतसाम्'
"उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम्' ये मेरा और ये तेरा, ऐसी गिनती करने वाला बहुत ही संकुचित विचार वाला (मन वाला) होता है । जहाँ स्वार्थ है वहाँ संकचित भाव है । परन्त जब उदारता आ जाती है, तब मैं एवं मेरा यह संकचित विचार मन से पलायन कर जायेंगे एवं समस्त वसुधा, समस्त पृथ्वी अपना कुटुम्ब हो जायेगी । जहाँ सब स्वजन ही हो वहाँ पर-जन कौन? उदारता मात्र धन देने से नहीं आ
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रहस्य-दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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