________________
"भव-जलधि में डूबते हुए जीवों के लिए इन चरण-युगलों का मात्र आलम्बन ही काफी नहीं. सम्यक् आलंबन भी जरूरी है । यह बात इन महा कविवरने इन शब्दों में स्पष्ट की है "नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पंथाः" ।
हे भगवन् ! आपका मोक्षमार्ग शिवरूप है, मंगल रूप है, इसीलिए मात्र आलम्बन ही नहीं; परन्तु सम्यक् आलम्वन भी है; आप रेल-गाडी की छत पर बैठे या दरवाजे पर लटक कर यात्रा करे, परन्तु अपने गंतव्य स्थान पर तो पहुँच ही जाऐंगे । फिर आप गाडी में जगह नहीं मिली ऐसा तो नहीं कह सकते । आप अपनी मंजिल पर तो पहुँच ही गये, चाहे मुसीबत झेल कर पहुँचे, चाहे महा-पीडा से, चाहे महा-व्यथा से ।
पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज के कहने का आशय यही है “प्रभो ! आपके चरण-युगल को जो सम्यक् प्रण उनके लिए आपका मोक्ष मार्ग सम्यक् आलम्बन है । मोक्ष मिले तो भी बिना खटपट बिना लटपट का । उसमें व्यथा नहीं होती और न ही विषमता और विवाद का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जिसने आप के शरण में आकर मोक्ष प्राप्त कर लिया हो उनका आलम्बन मात्र भी अगर कोई साधारण मानवी (मनुष्य) ले तो वह भी इस भव-समुद्र (भव-जलधि) को पार कर सीधा ही मोक्ष में जाएगा । न उन्हें कहीं अटकना पडेगा; और न ही कही भटकना पडेगा । इसी लिए "सम्यक" शब्द का भाव तीनों स्थान (दर्शन-ज्ञान-चारित्र) पर जोडना अति आवश्यक है ।
• “भवजले".
...प्रथम श्लोक की चतुर्थ पंक्ति “आलम्बनं भवजले पततां जनानाम्” को पढ़ कर मन कभी प्रश्न करता है कि इतने
कवि को "भव जलधि पततां" जैसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए था । "जल शब्द तो समुद्र का पर्यायवाची नहीं है। "जल" शब्द तो मात्र पानी का पर्याय है । तो किस उद्देश्य से “जलधि" शब्द का प्रयोग नहीं किया ? भाई ! पहले "भव” शब्द का प्रयोग करके “जल' शब्द का उपयोग किया है । जो "भवजल" है तो "भवजलधि" भी है । जलधि का एक बिन्दु भी जल कहलाता है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजीने भवरूप-भवजलधि में भी सब को डूबने से रोका है तथा जलधि के एक बिन्दु रूप जल में भी सांसारिक आत्माओं को फंसने से रोका है | विषय एवं कषाय का मूल से नाश तो करना ही है । परन्तु जब तक यह साध्य (संभव) नहीं हो तब तक “भवजल' के सूक्ष्म जल-बिन्दु में भी आराधक को डूबने से रोकने का प्रयत्न किया है । ये जन्म-मरण रूप संसार-चक्र में से सभी को पार कराने का अभियान है तो प्रतिक्षण पैदा होती विषय एवं कषायों की स्वल्प मात्रा से भी-भव के जल से दूर रहने का आदेश है । कारण-बाहर रहे हुए जल तथा जलधि (समुद्र) में रहे हुए जल में जलत्व जाति तो एक समान ही है । कहने का आशय है कि चाहे समुद्र का जल हो या पीने का पानी, जल की जाति तो एक ही है । पू. मानतुंगसूरीश्वरजी के कहने का तात्पर्य है कि चाहे बाहर रहे हुए जल में-प्रशस्त कषायों में डुबाने का सामर्थ्य नहीं है, परन्तु जल का स्वभाव डुबाने वाला ही है; जाति भाई से भी बचकर रहना चाहिए।
अहो ! पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज की महामति (बुद्धिमत्ता) का जितना अवगाहन करें उतना कम है । इस ग्रन्थ में "रहस्यार्थ रत्नो" का अखूट भंडार है । हम सद्गुरु की कृपासे इसके अभ्यास के द्वारा इन रहस्यार्थो को जान कर अपने जीवन को धन्य बना सकते है ।
• "प्रथमं जिनेन्द्रं".
...जन-सामान्य के दिलो-दिमाग में प्रश्न उठता है कि श्री सिद्धाचल-दरबार में श्री आदिनाथ दादा के सन्मुख तो श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ किया जाता है. श्री आदिनाथ प्रभ बिराजमान है ऐसे ही श्री कलपाकजी तीर्थ में या सोला रोड के नवनिर्मित नूतन जिनालय में जहाँ भी श्री आदि-देव बिराजमान हैं, वहाँ भी श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ होता है । अरे ! कोई भी आदिदेव की प्रतिमा के सम्मुख (समक्ष) भी भक्तामर स्तोत्र बोला जा सकता है । परन्तु श्री उवसग्गहरं-तीर्थ में श्री पार्श्वनाथभगवान के सन्मुख कैसे बोला जा सकता है ? श्री शंखेश्वर-दादा के सन्मुख श्री शंखेश्वर-तीर्थ में कैसे भक्तामर स्तोत्र पढा जा सकता है ? श्री मुनिसुव्रत स्वामी के अति सुंदर नयनरम्य एवं मनभावन तीर्थ "शकुनिका-विहार' में कैसे भक्तामर स्तोत्र का पाठ किया जाता है ? इन सभी जटिल प्रश्नों का निवारण है । पू. गुणाकरसूरीश्वरजीने इन प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा है कि "प्रथमं जिनेन्द्र” इस पद के रहस्यार्थ से घोषित है कि श्री भक्तामर-स्तोत्र सब जिनेश्वर (जिनेन्द्र) भगवंतो के समक्ष (सन्मुख) बोला
(२०६
रहस्य-दर्शनXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org