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श्रेयांसकुमार ने भी हस्तिनापुर में प्रभुजी पाद-पीठ की रचना की थी । भरत महाराजा ने जिन बिंब का निर्माण तो बाद में करवाया; परन्तु आदिदेव की पाद-पीठ का महत्त्व है, चरण-कमलों का महत्त्व है, ये चरण जहाँ-जहाँ भी पड़े उस भूमि को श्री हेमचन्द्रचार्यजी महाराज ने पूज्य मानी है ।
... मानव का शरीर एक है परन्तु पाद (पाँव) दो हैं । द्वैत में अद्वैत को समझने का यह कैसा काव्यमय सूचन है ? दो पाँव (चरण) स्वतंत्र होते हुए भी दोनों के बीच में आपस में नियंत्रण है । स्वतंत्रता में से जब परस्पर सहकार की भावना भूला दी जाती है तव दुःख-दर्द एवं दारिद्रय ही शेष रहता है । मानव को अगर सुसंस्कृत (संस्कारी) रहना हो और उसे विकृत नहीं बनना हो तो सहकार-सहयोग एवं सम-संवेदन की बात को स्वीकारना ही पड़ेगा !
... वैसे तो प्रभुजी के एक अंगूठे का ध्यान भी जीवन को धन्य बना देता है । फिर भी समस्त चरण एवं चरण-युगल का साथ में ही ध्यान करना उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । घन तथा ऋण, पोजिटिव एवं नेगेटिव (Positive and Negative) जैसे ही दायाँ एवं बाँया (Right or Left) का युग्म (जोडी युगल) जरूरी है । प्रभु का दाया (Right) अंग एवं दायाँ पाद (पाँव) साधक को अनादिकाल की आसक्ति से दूर करता है । प्रभुजी का बायाँ-चरण अनंत काल तक बनी रहे ऐसी शाश्वतशक्ति के बीज को सिंचित करता है ।
पाप का शोषण
पुण्य का पोषण आश्रव का शोषण - संवर का पोषण
परभाव का शोषण - स्वभाव का पोषण इन चरण-युगल से ही होता है | चरण-युगल में सुशोभित दस अंगुलीयाँ (Ten-Fingers) दस प्रकार के यति-धर्म का मर्मपूर्ण सूचन हैं । अंगुलीयों पर चमकते हुए दस नख (नाखून) (Ten-Nails) दसों दिशाओं में साधक एवं भक्त के अमर-कीर्ति को प्रसार करने का स्वाभाविक वरदान देते है ।
ग्रन्थकार-महामना पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराजने प्रभु के चरण-युगल को “पापतमोवितानं" को नाश करने वाला कहा है। तीनों विद्वान टीकाकारों ने “पाप रूप अंधकार" ऐसा अर्थ माना है । फिर भी इन पूज्य-महापुरूषों के चरणों में वंदन कर मेरा मन “पाप" एवं “अंधकार" दोनो के समूह दूर करने वाला, ऐसा अर्थ करने को लालायित हो रहा है । पाप अक्सर तो अंधकार का रूप होता है; परन्तु कई बार प्रकाश के लिए आत्मशक्ति के आविर्भाव के लिए एक छिद्र, एक सुराग भी प्रदान करता है । "पुण्यानुबंधी-पाप" का ऐसा भी एक प्रकार है; कि जो पाप रूप होते हुए भी पुण्य की तरफ जाने का पथ प्रदर्शित करता है, परन्तु अंधकार तो कभी मार्ग देखने का अवकाश ही नही देता । अघाती कर्म की पाप प्रकृत्तिएं अशुभ नाम, अशाता वेदनीय एवं नीच गोत्र की प्रकृतिएं कई बार दुःख देकर जीवन को परमात्मा के पास भी ले जाती है । परन्तु घाती-कर्म का उदय अंधकारमय है | वे आत्मा के गुणों को इस कदर दबा देते है कि तनिक भी प्रकाश हमें न मिले प्रभुजी के चरण, पाप एवं अंधकार, घाती तथा अघाती दोनों कर्मो को चकनाचूर करने में समर्थ हैं। पाप एवं अज्ञान की ये जोडी (युगल) का अंत (नाश) करने के लिए प्रभुजी के 'चरणयुगल' को ही पकडना पडेगा ।
. सम्यक् प्रणम्य .
महान तार्किक पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज ने श्री भक्तामर-स्तोत्र को सूत्र रूप में नहीं बनाया है, फिर भी जरूरत पड़ने पर सूत्र शैली का आश्रय करते हो ऐसा देखा गया है । प्रत्येक पद का तार्किक रूप से समाधान हो ऐसे तरीके से शब्दों को संयोजा है । आप “नत्वा" शब्द का प्रयोग कर सकते थे परन्तु, "जिन पाद युगं" के पास नत्वा शब्द नहीं चलता । घरवाली जब गुस्से से तिलमिला जायेगी तब हे ! संसारी तूं झुकेगा तो जरूर ही, नत्वा तो करेगा ही, अगर इन्कम-टेक्स वाला आ धमके; तब सब को तुं नत्वा (नमन) तो करेगा, परन्तु परमात्मा के पास तुझे शरणागति ही स्वीकारनी है । प्रभु के चरण-युगल का आश्रय लेना हो तब "नत्वा' मात्र नमस्कार से नहीं चलता है; तुझे "प्रणम्य" ही करना पडेगा । “प्र" का अर्थ है “प्रचंड प्रयत्न' | नमस्कार तो पंद्रह प्रकार का होता है, परन्तु “प्रणाम'' तो मात्र एक मुमुक्षु भाव से ही होना चाहिए । अनादि-काल की विपरीत चाल को सुलटाने के लिए मात्र नमस्कार ही काफी नहीं है । प्रणाम ही करना पड़ेगा । आंतरिक शत्रुओं को भगाना ही पडेगा । इनको भगाने के लिए
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रहस्य-दर्शन
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