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• गाथा रहस्यार्थ.
अट्ठाईस-अट्ठाईस महान प्रभाव-कथाओं के रहस्यों का यहां वर्णन करने में आया है । ये मन-भावन कथाएँ हमारा रोम रोम खड़ा कर देती है । आज दिन तक श्री भक्तामर स्तोत्र की आराधना से अद्भुत चमत्कार होते ही आये हैं । वैसे श्री भक्तामर स्तोत्र में मंत्रों एवं विद्याओं तथा यंत्रों एवं तंत्रों के अनेक रहस्य भरे पड़े है । पू. आचार्य गुणाकर सूरीश्वरजी महाराजने अपनी टीका में ऐसे अनेक रहस्यों को उजागर किया है । जिस पुण्यात्मा को पद्मावती माता की कृपा से स्वप्न में वीशा-यंत्र का आभास हुआ था, ऐसे अनेक मंत्र-शास्त्रवेत्ता श्री मेघविजयजी उपाध्यायने श्री भक्तामर स्तोत्र की पहली एवं अंतिम गाथा में स्तोत्र की अधिष्ठायिका श्री चक्रेश्वरी-देवी के बीजाक्षर “आं" के रहस्य का रहस्योद्घाटन किया है | जो गुरुगम से जान लेना चाहिए।
परन्तु श्री भक्तामर-स्तोत्र मंत्र-रहस्य तथा विद्या-रहस्यों के साथ-साथ साहित्य के भी रहस्यों का खजाना है । इस अमूल्य
की ओर पू. मेघविजयजी उपाध्याय ने अपनी टीका में जगह-जगह इशारा भी किया है । इस ग्रंथ में ऐसे अनेक साहित्य रहस्य एवं चिंतन-रहस्य छिपे हुए है कि जिनको प्रकट करना आसान नहीं है । फिर भी “जिन पाद युगं"-"सम्यक् प्रणम्य""भवजले" "प्रथमं जिनेद्रं"-"चित्तहरैः उदारै"-"विगत त्रपोऽहं" "स्तोत्र सज" जैसे चिंतन-योग्य पदों का थोडा रहस्य यहाँ प्रकाशित करने में आया है।
• जिन पादयुगं.
श्री भक्तामर स्तोत्र के प्रथम-श्लोक में महामना पू. मानतुंग सूरीश्वरजी जिनेश्वर-परमात्मा के चरण-युगल को नमस्कार करते है । भारतीय संस्कृति में अनन्य संस्कार वैभव है । इस संस्कृति को ब्राह्मणों तथा श्रमणों ने वेद की ऋचाओं से एवं आगम के आलापकों से सिंचित किया है, पुलकित किया है तथा उसे फलद्रूप बनाया है । इस संस्कृति में पूज्य-पुरूषों का ध्यान करने के लिए "चरण-युगल' को ही महान शक्ति-संस्थान व शक्ति-पीठ माना गया है । लक्ष्मण की कही हुई बात स्वाभाविक रूप से याद आ जाती है “नूपुरे तु अभिजानामि-नित्यं पादाब्जवंदनात्” “हे पुरुषोत्तम राम ! मैं न तो वाजु-बन्ध को पहचानता हूँ, न तो कुंडल को पहचानता हूँ, मैं तो सिर्फ माता सीता के नूपुरों को पहचानता हूँ | मेरा कार्य माता सीता के रूप को निरखने का नहीं है और ना ही मेरे नयन आभूषणों की चकाचौंध से प्रभावित होते है । मुझे तो शक्ति स्वरूपा जगदम्बा देवी जैसी सीता माता की सेवा करनी है। उसके लिए चाहिए मुझे चरण-युगल की सेवा ।" इसी कारण मुझे पहचान हुई है उन नूपुरों की, उन झन झन करती झांझरों की । इस भारत-भूमि में मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे तो मर्यादा के महारथी लक्ष्मण जैसे देवर भी थे । ऐसी ही महान संस्कृति की मर्यादा से भारत वर्ष गौरवान्वित रहा है । महान साधना के पथ का रहस्योद्घाटन यहाँ पर "जिन पाद युगं" के नमस्कार से हो रहा है ।
प्रभुजी के मुखडे का वर्णन कविवर पू. मानतुंग सूरीश्वरजी महाराज ने दिल खोल कर किया है । प्रभुजी के प्रातिहार्यों की सुषमा को कविवर ने चार-चार श्लोकों में वर्णित किया है । पर सब बाद में सबसे पहला वर्णन है “जिन पाद युगं" का | पूछो उस मर्यादा के महारथी भरत से: जिसने राम के विरह में कैसे चौदह-वर्ष तक राज्य किया ? राम की पादकाओं को सिंहासन पर स्थापित कर । हमें भी मोक्ष का महा-साम्राज्य प्राप्त करना है; ठीक भरत की ही तरह; हृदय के सिंहासन पर श्री आदिनाथ दादा के चरणयुगलों को विराजमान कर ।
...आज भी सिद्धाचल पर्वत पर श्री आदीश्वर दादा की चरण-पादुकाओं की अनोखी महिमा है । पू. आचार्य गुणाकर सूरीश्वरजी एवं पू. मेघविजयजी उपाध्याय ने ऐसी संभावना व्यक्त की है कि पू. आचार्य मानतुंगसूरीश्वरजी ने भी सिद्धाचल में स्थापित इन चरण पादुकाओं का ध्यान किया था । आज प्राचीन तीर्थ गिरिराज सिद्धाचलजी एवं सम्मेतशिखरजी में भी अनेक तीर्थकरों की चरण-पादुकाओं की स्थापना है | "चरण-पादुकाओं की पूजा-अर्चना एवं ध्यान का अनुपम महत्त्व है।"
उपाध्याय श्री मेघविजयजी तो प्रभुजी के इन चरण-कमलों को पूजने के लिए प्राचीन काल के पाद-पीठों की याद दिलाते है । तक्षशीला में प्रभु के विरह से संतप्त समर्थ राजवी बाहुबली ने भी श्री आदिनाथ दादा के पाद-पीट की रचना की थी। महान दानवीर
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रहस्य-दर्शन
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