Book Title: Bhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 18
________________ हुए पुनः आभिनिबोधिक के अवग्रह, ईहा, अवाय व धारणा ये चार भेद किये गये हैं। नन्दीसूत्र में ज्ञान-विभाजन की परंपरा देखने से यह स्पष्ट होता है कि वहाँ प्रारंभ में ही ज्ञान के पाँचों भेदों को प्रत्यक्ष व परोक्ष इन दो भेदों में समाहित किया गया है तथा आभिनिबोधिक ज्ञान के श्रुतनि:सृत तथा अश्रुतनिःसृत ये दो भेद भी किये गये हैं। भगवतीसत्र में वर्णित विभाजन में ये दो भेद नहीं मिलते हैं। इससे यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है कि भगवतीसूत्र में वर्णित ज्ञान का विभाजन सर्वाधिक प्राचीन है, आगे इसी परंपरा का विकास हुआ है। इस अध्याय में नन्दीसूत्र के अनुसार ज्ञान-विभाजन का संक्षेप में परिचय प्रस्तुत किया गया है। भगवतीसूत्र में प्रमाण की चर्चा करते हुए कहा गया है- 'छद्मस्थ मनुष्य केवली की तरह अन्तकर या अन्तिम शरीर को न जानता है न देखता है वह सुनकर या प्रमाण से जानता व देखता है।' यहाँ पाँचों ज्ञान की दृष्टि से उत्तर ना देकर प्रमाण की दृष्टि से उत्तर दिया गया जो कि यह सिद्ध करता है कि अन्य दार्शनिकों की तरह जैन आगमकार प्रमाण व्यवस्था से अनभिज्ञ नहीं थे। वे स्वसम्मत ज्ञानों की तरह प्रमाणों को भी ज्ञाप्ति में स्वतंत्र साधन मानते थे। प्रमाण के चार भेद किये गये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा, आगम। इनका विवेचन अनुयोगद्वारसूत्र से पूर्ण करने का निर्देश दिया गया है। अतः प्रस्तुत कृति के इस अध्याय में अनुयोगद्वार के आधार पर प्रमाण पर संक्षिप्त विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है। __ जैन ज्ञान-मीमांसा व प्रमाण की चर्चा अनेकान्तवाद, स्याद्वाद व नयवाद के बिना अधूरी है। बारहवें अध्याय में भगवतीसूत्र के आधार पर अनेकान्तवाद्, स्याद्वाद व नयवाद का भी विवेचन प्रस्तुत किया गया है। भगवतीसूत्र में भगवान महावीर के उन दस स्वप्नों का वर्णन है जो उन्होंने छद्मस्थ अवस्था की अन्तिम रात्रि में देखे थे। उसमें से तीसरा स्वप्न उन्हें अनेकान्तवाद का उपदेशक स्वीकार करता है। यह बात भगवतीसूत्र के अध्ययन से प्रमाणित भी होती है। प्रायः इस ग्रन्थ में तत्त्वविद्या सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देते समय भगवान् महावीर द्वारा अनेकान्तदृष्टि का ही प्रयोग किया गया है। उनके द्वारा लोक की नित्यता-अनित्यता, जीवादि द्रव्यों की शाश्वतता-अशाश्वतता, द्रव्य की एकता-अनेकता, द्रव्य पर्याय के सम्बन्ध आदि का उद्घाटन इसी अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। XVI भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन

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