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स्व. का. देवकुमार जी की दानशीलता
[ले०-श्रीयुत् पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ] जैन समाज के बहुसंख्यक विद्वानों का जनक श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी के गंगातट पर स्थित जिस विशाल भवन में अपने जन्मकाल से स्थापित है, क्या
आपने कभी उसे देखा है ? यदि देखा है तो क्या आपने उस भवन की महत्ता और सुरम्यता का अनुभव किया है ? यदि किया है तो आप उस घराने की उदारता, धर्मप्रेम और सुरुचि का अनुमान सालता से कर सकते हैं, जिसने उसका निर्माण कराया और उसे जैन समाज के उपयोग के लिये दे दिया। ___मैंने स्व० बा० देवकुमारजी को नहीं देखा । किन्तु जब मैं श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ तो उसके भवन में उनका चित्र देखा और विद्यालय की स्थापना के साथ उनके जीवन के लगाव की कथा सुनी। फिर उसके वार्षिकोत्सव के अवसर पर उनके दोनों सुकुमार पुत्रों को देखा और अभिनन्दन के उत्तर में बोलते सुना उनके बड़े पुत्र बा० निर्मल कुमार जी को-- 'हम अपने पिता के पद चिन्हों पर चलने का प्रयत्न करेंगे।' स्व. बा० देवकुमार को देखने की मेरी बालसुलभ उत्कण्ठा तो शान्त हो गयी किन्तु ऐसे महापुरुप का केवल इकतीस वर्ष की अवस्था में उठ जाना बहुत कसका। और यह एक ऐसी कसक है जो कभी मिट नहीं सकती। सन् १६०८ के ५ अगस्त की रात्रि कालरात्रि थी। उसी कालरात्रि को ११ बजे कलकत्ता में वह पुण्य पुरुष विलीन हो गया और जैन समाज पर अन्धकार छा गया।
बा० देवकुमार जैसे धनिक और विद्वान थे, वैसे ही धर्मात्मा भी । साढ़े तीन महीने की कठिन बीमारी में भी मृत्यु के दिन तक कभी जिनेन्द्रदेव का दर्शन किये बिना आपने औषधि नहीं ली। अपना अन्त समय निकट जानकर आपने श्री नेमिसागर जी वर्णी को पहले से ही अपने पास बुला लिया था। अतः आपने समाधिपूर्वक इस शरीर का परित्याग किया। बीमारी में उन्हें असह्य कष्ट उठाना पड़ा, किन्तु अपने कर्मो का परिपाक समझ कर शान्ति के साथ उसे सहन किया। ___ उसी वर्ष श्राप कुण्डलपुर ( दमोह ) में दि० जैन महासभा के अधिवेशन के सभापति हुए थे। उस समय समाज की उन्नति के लिये आपने जो व्याख्यान दिया था उसकी सर्वत्र सराहना हुई थी। वह समय कई दृष्टियों से बड़े संकट का था। एक जो बाबू, पंडितों और सेठों के झगड़े का सूत्रपात हो चुका था और दूसरे उसी समय भारत के लार्ड मिण्टो ने यह हुक्म दिया था कि 'शिखर जी के पश्चिमी पर्वतों पर अंगरेज और पूर्वीय पर्वतों पर हिन्दुस्तानी अपने अपने बँगले वनवा सकते हैं।