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अवचेतन मन से संपर्क
नहीं मिलता, अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलता। तब कामना के दोष अपने आप घुलते चले जाते हैं । चेतना की शुद्धि का क्षण सारी अशुद्धियों को समाप्त करने का क्षण है । जो धातु परिष्कार या धातु-शोधन की प्रक्रिया को जानते हैं वे इस सचाई से अनभिज्ञ नहीं हैं ।
धातु-शोधन को वैज्ञानिक प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध धातु का डंडा ऊपर घूमता है और उसके नीचे जो विजातीय तत्त्वों से मिश्रित धातु-डंडा पड़ा है, उसमें से विजातीय कण छन-छनकर निकल जाते हैं । उसे छूने की भी आवश्यकता नहीं होती । इसी प्रकार शुद्ध चेतना का डंडा जब घूमता है तब अशुद्धि के सारे कण छनते चले जाते हैं; चित्त निर्मल तथा पवित्र होता चला जाता है ।
श्वास- दर्शन का क्षण वीतरागता का क्षण है । यह क्षण जितना लम्बा होता है उतनी ही आन्तरिक शुद्धि होती जाती है ।
मुक्ति का सिद्धान्त काम परिष्कार का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । मुक्ति हमारा अन्तिम आदर्श है । इसको हमने सामने रखा है । इस अन्तिम में से जो बात निकलेगी, वह काम के परिष्कार की बात होगी । कोई व्यक्ति चाहे ध्यान करे या न करे, किन्तु वह प्रत्येक कार्य के साथ मुक्ति की स्मृति बनाए रखे । कोई भी काम करे तो यह सोचे - मुक्ति तक पहुंचना है । ऐसा करने वाला साधना के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ जाता है । साधना का कोई एक ही मार्ग नहीं होता । 'विभिन्नाः पन्थानः - अनेक मार्ग हैं | अनेक मार्गों में यह भी एक मार्ग है कि खाए तो मुक्ति का दर्शन, पीये तो मुक्ति का दर्शन, सोए तो मुक्ति का दर्शन, चले तो मुक्ति का दर्शन । मुक्ति, मुक्ति और मुक्ति । मुक्ति की इतनी तन्मन्यता और लयबद्धता आ जाए तो अन्यान्य परिणाम स्वतः आ जाते हैं । इससे चैतन्य केन्द्रों का विकास भी हो जाएगा, वीतरागता भी उतर आएगी और सर्वज्ञता की भी उपलब्धि संभव हो जाएगी।
मुक्ति के लक्ष्य में अन्यान्य लक्ष्य समा जाते हैं । इस साधना से काम से अकाम की स्थिति निर्मित हो जाती है । कोई व्यक्ति अगर इस भूमिका का अभ्यास करता है और यह निश्चय कर लेता है कि अन्तर और बाह्य- दोनों दृष्टियों के समक्ष मुक्ति के दर्शन को रखेगा, वह मुक्ति के निकट पहुंच सकता है । जब अन्तर्लक्ष्य बन जाता है मुक्ति, तब उसका निरन्तर दर्शन होता रहता है। आंख खुली हो या बंद, वह कभी ओझल नहीं होता । किन्तु जब तक यह लक्ष्य आन्तरिक नहीं होता तब तक श्वास-प्रेक्षा आदि प्रक्रियाओं से गुजरना होता है । अन्तर्लक्ष्य बाली बात सरल लगती है, पर उसका बनना कठिन है । मार्गगत अनेक बाधाएं हैं। राग की तरंग आ जाती है और लक्ष्य भुला दिया जाता है । आदमी वैसा का वैसा । उस भाव को पुष्ट करने के लिए अनेक
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