Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 180
________________ १७० अवचेतन मन से सम्पर्क होता, जानने में साक्षात्कार करना होता है। मानी बात कही जा सकती है, पर उसमें साक्षात्कार नहीं होता, अनुभव नहीं होता। जानने में साक्षात्कार जरूरी है। प्रेक्षाध्यान का प्रयोग मानने मात्र का प्रयोग नहीं है, यह जानने का प्रयोग है । हम अपनी दृष्टि को प्रयोग और अभ्यास के द्वारा इतना सूक्ष्म बना सकते हैं कि आज तक जो तत्व माना जाता रहा है, वह जाना जा सकता है। जब तक दृष्टि स्थूल बनी रहती है तब तक हर बात मानी जाती है पर जब दृष्टि सूक्ष्म बन जाती है तब मानी हुई बात जान ली जाती है। दर्शन की शक्ति जैसे-जैसे विकसित होती है, वैसे-वैसे जानने की शक्ति का विकास होता है । इसी प्रक्रिया में आत्मा की बात स्पष्ट हो जाती है। यहां से फिर एक प्रस्थान शुरू होता है भिन्न दिशा में । सामाजिक चेतना के संदर्भ में मैंने कहा था 'मैं अकेला नहीं हैं' और अब अध्यात्मिक चेतना के संदर्भ में मुझे कहना होगा 'अकेला हूं'। दोनों भिन्न हैं, पर अध्यात्म में यही सूत्र बन सकता है । जब अनित्य अनुप्रेक्षा, एकत्व अनुप्रेक्षा और अन्यत्व अनुप्रेक्षा का प्रयोग होता है, तब धारणा स्पष्ट बन जाती है कि 'मैं अकेला हूं।' जितने पदार्थ मेरे साथ जुड़े हुए हैं, वे मात्र संयोग हैं। संयोग और वियोग होता रहता है । पदार्थों की युति मात्र संयोग है। __ मूर्छा जब सघन होती है तब सामने पड़ी हुई सच्चाई भी ज्ञात नहीं होती । आंखें चुंधिया जाती हैं । सचमुच आज यही हो रहा है। हर व्यक्ति अपनी आंखों पर भरोसा करता है, पर वास्तव में आंखें कितना धोखा देती हैं, यह भी प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता है। मोह के कारण ही व्यक्ति सचाई को नकारता जा रहा है। मूर्छा की सघनता में यथार्थ का पता ही नहीं चलता । उस स्थिति में व्यक्ति कठिनाइयों को झेल सकता है, दुविधाओं में जी सकता है पर सचाई को स्वीकार करने में हिचकिचाता है। आध्यात्मिक चेतना के अभाव में मूर्छा सघन बन जाती है। कौन व्यक्ति ऐसा है, जिसमें आध्यात्मिक चेतना न जागी हो और मूर्छा सघन न हुई हो ? सामाजिक चेतना और नैतिक चेतना तब तक नहीं जागती जब तक आध्यात्मिक चेतना का जागरण नहीं होता। वास्तव में यह बहुत बड़ी सचाई है, इसे मुक्तभाव से हमें स्वीकार करना चाहिए। समाजवादी या साम्यवादी प्रणाली के द्वारा जिन लोगों ने सामाजिक चेतना को जगाने और वैयक्तिक चेतना को समाप्त करने का प्रयत्न किया, उसका परिणाम यह आया कि बहुविध नियंत्रणों, दंड विधानों और कानूनों के उपरान्त भी वैयक्तिक चेतना कम नहीं हुई किन्तु स्वार्थ और अधिक घना होता गया। एक बात है, सामाजिक चेतना के जागरण की समर्थक प्रणालियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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