Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 184
________________ १७४ अवचेतन मन से संपर्क सारे पारिवारिक सम्बन्ध ट्ट नहीं जायेंगे ? हम एकांगी दृष्टिकोण से विचार न करें । जीवन-यात्रा को चलाने के लिए व्यवहार की भूमिका पर रहना जरूरी है और इस भूमिका पर आदमी अपने आपको हजारों-हजारों धागों से बंधा अनुभव करे और अध्यात्म की भूमिका पर उन धागों से मुक्त अनुभव करे । दोनों स्थितियां साथ-साथ चलें। दोनों का सामंजस्य हो । व्यवहार की दृष्टि भी चले और निश्चय की दृष्टि, प्रेक्षा की दृष्टि भी चले । जो सामाजिक जीवन जीता है उसे इन धागों से बंधा रहना पड़ता है किन्तु केवल इसी में रह जाए और आध्यात्मिक चेतना को न जगा पाए तो मूर्छा इतनी सघन हो जाती है और वे धागे मजबूत रस्से बन जाते हैं, फिर उनसे छूटना सरल नहीं होता। प्रेक्षा के द्वारा हम अपनी चेतना को जगाएं और अपने आप में यह अनुभव करें--'मैं अकेला हूं,' 'मैं चेतन हूं।' 'यह शरीर अचेतन है। इसमें होने वाले विद्युत प्रकंपन, जैविक रसायन, रक्त का अभिसरण-ये सारे अचेतन हैं। मैं चेतन हं। इसीलिए शरीर भिन्न है, मैं भिन्न हूं।' जब ये तीन सचाइयां अनुभव के स्तर पर समझ में आ जाती हैं, तब अध्यात्म चेतना का जागरण घटित होता है। प्रेक्षा का प्रयोग केवल सुनने का प्रयोग नहीं है, करने का प्रयोग है। बातें सुनने में अच्छी लग सकती हैं, पर उनसे होगा क्या ? एक बार मस्तिष्क कुछ झंकृत होता है और जब दूसरी बात सामने आती है तब वह झंकार समाप्त हो जाता है और दूसरी बात की झंकृति प्रारंभ हो जाती है। जब हम केवल सुनते ही नहीं, प्रयोग करते हैं, तब वह तथ्य गहरे में अवचेतन मन तक पहुंच जाता है, वह स्थायी बन जाता है । हम प्रयोग और अभ्यास में विश्वास करें। एक बार नहीं, हजार बार उसे दोहराएं। असम्भव सम्भव लगने लगेगा। जो प्रयोग करता है, अभ्यास से गुजरता है, उसको अवश्य अनुभव होता है । जो बात अनुभव के स्तर पर आती है, वह स्थायी और शाश्वत उपयोगी बन जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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