Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 191
________________ जीवन विद्या १८१ प्रवाहित होता है । यह जागृत मन तो बेचारा उस प्रवाह को अभिव्यक्ति देने वाला है, क्रियान्वित करने वाला है। आज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शिक्षा के द्वारा जागृत मन तो बहुत शक्ति-संपन्न होता जा रहा है और सूक्ष्म मन या अन्तःकरण कमजोर होता जा रहा है। जागृत मन पूरा काम कर रहा है पर सूक्ष्म मन सोया पड़ा है । उसे काम करने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा है। आदमी में इतना तनाव है, इतना प्रमाद है कि सूक्ष्म मन को कार्य करने का मौका ही नहीं मिलता । जीवन विज्ञान की प्रक्रिया के आधार पर कुछ नियम खोजे गए हैं, जिनके आधार पर अन्तःकरण को, शुद्ध चेतना को, अचेतन मन को जगाया जा सकता है। न केवल जगाया जाता है, किन्तु परिष्कार भी किया जा सकता है । हमारे अचेतन मन में दो धाराएं समानान्तर चल रही हैं। एक है अन्धकार की धारा, कृष्ण पक्ष की धारा और दूसरी है प्रकाश की धारा, शुक्लपक्ष की धारा। यह नहीं कहा जा सकता कि अचेतन में सब अच्छा ही अच्छा है। उसमें अच्छा भी है, बुरा भी है। अमृत भी है, जहर भी है। उसको जगाने में खतरा भी है। यदि उसके भीतर की शक्तियां जाग जाती हैं तो वे अनेक खतरे भी पैदा कर सकती हैं। इसलिए दोनों बातें अपेक्षित है-जागरण और परिष्कार । उन शक्तियों को जगाना है और उनका परिष्कार भी करना है। यह निश्चित तथ्य है कि जब तक अचेतन मन जाग नहीं जाता तब तक विशेष कार्य नहीं किया जा सकता । बुद्धि के स्तर पर जो कार्य होते हैं, वे महत्त्वपूर्ण अवश्य होते हैं, पर आज बहुत सारी संभावनाएं जो प्रगट हुई हैं, वे बुद्धि के स्तर पर होने वाली घटनाएं नही हैं। वे सारी अचेतन मन या अन्तःकरण से सम्बन्धित हैं। आइंस्टीन से पूछा गया-सापेक्षवाद के सिद्धान्त की खोज कैसे की गई ? उन्होंने कहा-मैं नहीं जानता । मैंने उसका कभी चिन्तन ही नहीं किया था। अचानक वह बात मेरी प्रज्ञा में अवतरित हुई, अकस्मात् विस्फोट हुआ और सापेक्षवाद का अवतरण हो गया । कभी-कभी जो रहस्य चिंतन-मनन से उद्घाटित नहीं होते, वे अकस्मात् अभिव्यक्त हो जाते हैं। स्वप्न में भी उनका अवतरण हो जाता है। स्वप्न में ऐसे अनेक फार्मूले, नियम ज्ञात हुए हैं, जो वर्षों के चिन्तन और मनन के बाद नहीं हो पाए थे। इस प्रकार आकस्मिक ढंग से होने वाले रहस्योद्घाटनों का मूल स्रोत हमारे भीतर है, वह है हमारी प्रज्ञा । जो खोज बुद्धि से नहीं होती, वह अन्तःप्रेरणा से, प्रज्ञा से हो जाती है। ___ हमारे भीतर प्रज्ञा है । उसको कैसे जगाया जाए, यह सोचना है। उसको जगाने के जो सूत्र हैं, वे जीवन-विज्ञान के सूत्र हैं। हमारी प्रज्ञा तब जागती है, जब आलस्य, प्रमाद और मूर्छा का वलय टूटता है। वाल्मीकि एक क्षण में डाकू से ऋषि बन गया। यह बुद्धि या चितन के स्तर पर होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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