Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 192
________________ १-२ अवचेतन मन से संपर्क वाली घटना नहीं थी । उसकी प्रज्ञा जागी, अन्तःकरण में स्फुरणा जागी और वह डाकू से महर्षि बन गया । उसमें एक ही क्षण लगा, दो नहीं । यह द्रुत गति से होता है । यह द्रुतसंचरण है, छलांग है । यह छलांग चिन्तन से परे प्रज्ञा की देन है । इसीलिए कभी-कभी आकस्मिक ढंग से अन-होना, होना हो जाता है । यह सब भीतर का क्षेप है । मूर्च्छा टूटती है तब अप्रमाद जागता है । जब अप्रमाद जागता है तब भय समाप्त हो जाता है । आज का प्रत्येक आदमी भयभीत है । बड़े से बड़ा व्यापारी भी भयमुक्त नहीं है । अध्यापक भी भयमुक्त नहीं है । वह भले ही दूसरों को भय की बात न कहें पर भीतर ही भीतर वह भयाक्रान्त है कि कब, कैसे विद्यार्थी उसकी पिटाई कर दे। कब मिनिस्टर या अन्य शिक्षाधिकारी उस पर झूठे - सच्चे आरोप लगाकर निष्कासित कर दें । आज के वैज्ञानिक भयग्रस्त हैं । आबादी बढ़ रही है । वह दिन भी आ सकता है - जिस दिन आदमी को खाने के लिए अनाज नहीं मिल सकेगा । आबादी की यही रफ्तार रही तो वह दिन भी दूर नहीं है, जब आदमी को चलने के लिए रास्ता नहीं मिल पाएगा । उसे रहने को मकान और खाने को रोटी नहीं मिल पाएगी। वैज्ञानिक इन सारी समस्याओं से भयभीत हैं । वह जानता है - सौ वर्ष बाद कोयला और पैट्रोल समाप्त हो जाएंगे, ऊर्जा के सारे स्रोत समाप्त हो जाएंगे। उस समय विश्व की क्या स्थिति होगी ? यह भय वैज्ञानिक को है, औरों को नहीं । वे इसकी कल्पना नहीं कर सकते । बुद्धि जितनी प्रखर, तेज होगी उतना भय बढ़ेगा । बुद्धि का काम भय को मिटाना नहीं है । उसका काम है नए-नए भयों को उत्पन्न करना । अभय आता है प्रज्ञा से । जब प्रज्ञा जागती है, तब आदमी 'तथाता' बन जाता है । 'तथाता' का अर्थ है वर्तमान में जीना, जो प्राप्त है, उसे स्वीकार कर लेना । घटना को घटना के रूप में स्वीकार कर लेना 'तथाता' है, उसके साथ भय को जोड़ना आवश्यक नहीं है । ' तथाता' आती है प्रज्ञा से । बाह्य विस्मृति और अन्तर् जागरण - यह है ' तथाता' । हमारे सामने यह अहं प्रश्न है कि सूक्ष्म चेतना या प्रज्ञा के प्रवाह को शिक्षा जगत् में कैसे प्रवाहित किया जाए ? बुद्धि के साथ-साथ प्रज्ञा का विकास कैसे किया जाए ? प्राचीन काल में ये दोनों कार्य दो भिन्न-भिन्न संस्थाएं करती थीं । बौद्धिक जागरण का कार्य विद्या संस्थान करते थे और प्रज्ञा जागरण का कार्य धर्म-संस्थान करते थे। दो प्रकार के संस्थान थे— विद्या संस्थान और धर्म संस्थान | विद्या संस्थान में कार्यरत गुरु धर्म-संस्थान का भी कार्य करते थे । वे चारित्र का शिक्षण भी देते थे, बुद्धि और प्रज्ञादोनों को जगाने का कार्य करते थे । आज दोनों संस्थाओं का स्वरूप ही बदल गया । फिर भी आज के विद्या संस्थान बुद्धि के जागरण का पर्याप्त कार्य करे रहे हैं किन्तु धर्म-संस्थान प्रज्ञा - जागरण की ओर क्रियाशील नहीं हैं । इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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