Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 186
________________ १७६ अवचेतन मन से संपर्क बढ़ना है, कुछ करना है, कुछ होना है। मनुष्य ने कल्पना की और वह आकाश में उड़ने लगा, आकाशयात्री बन गया । उसने कल्पना की और जलयात्री बन गया । उसने द्रुतगामी वाहनों का निर्माण किया । यह सारा कल्पनाशक्ति का ही चमत्कार है, मानसिक विकास का द्योतक है । मनुष्य में अनन्त संभावनाएं हैं । उनका अधिकतम उपयोग कैसे हो ? उसकी सूक्ष्म शक्तियां कैसे जागे ? यह एक प्रश्न है। संभावनाओं का उपयोग और शक्तियों का जागरण अन्तश्चेतना के अधीन है । जीवन जीना एक बात है और जीवन को विकासशील बनाना, उससे भिन्न बात है । हम मनुष्य हैं, इसलिए केवल जीवन जीना ही नहीं चाहते, केवल प्राण धारण करना या केवल श्वास लेना ही नहीं चाहते, हम कुछ और चाहते हैं । हम कुछ होना चाहते हैं, बनना चाहते हैं । कुछ बनने का आधारभूत तत्त्व है-धर्म । धर्म जीवन का विकास सूत्र है । कवि ने कहा है यस्य धर्मविहीनानि दिनान्यायान्ति यान्ति च । स लोहकारभ्रस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति ॥ " जो व्यक्ति धर्मशून्य जीवन जीता है, उसका जीना जीना नहीं है। वह श्वास लेता है पर उसका कोई मूल्य नहीं । लुहार की धौंकनी भी श्वास लेती है पर उसका एक सीमित या तुच्छ मूल्य है । उसी प्रकार धर्मशून्य मनुष्य का श्वास भी तुच्छ है । होता है संप्रदाय के आज एक नई कठिनाई पैदा हो गई है । आज के लोग धर्म और संप्रदाय या मजहब को एक मान बैठे हैं। लोग कह देते हैं, धर्म के कारण कितनी लड़ाइयां लड़ी गई । कितना रक्त बहा ? कितने देश उजड़े ? धर्म के कारण ऐसा कभी नहीं हुआ और न होगा । यह सब कारण । धर्म और संप्रदाय इतने घुलमिल गये कि जो संप्रदाय के नाम पर घटित हुआ, वह सारा धर्म पर आरोपित हो गया । इसलिए धर्म को बदनाम होना पड़ा। यदि कोई आदमी धर्म तक पहुंच जाए तो वहां न लड़ाई है, न द्वेष है और न झंझट है । धर्म का अर्थ है, राग-द्वेष-मुक्त जीवन जीना । जब कोई भी आदमी राग-द्वेष-मुक्त जीवन जीएगा तो लड़ाइयां कहां उभरेंगी ? लड़ाइयां धर्म के कारण नहीं, संप्रदाय के कारण हुई हैं, होती हैं। संप्रदाय के आवरण में बेचारा धर्म आवृत हो गया । इसीलिए आज धर्म की भाषा समझ में नहीं आ रही है । यह एक समस्या है । इस समस्या को सुलझाने के लिए हमने एक प्रक्रिया प्रारम्भ की । उसमें धर्म शब्द का उपयोग नहीं किया । मैं मानता हूं कि धर्मं शब्द बहुत ही मूल्यवान् है । उसका अर्थ गंभीर है किंतु परिस्थितिवश उसका अर्थ बदल गया । भाषाशास्त्र के अनुसार शब्दों के अर्थ का उत्क्रमण और अपक्रमण होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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