Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 179
________________ अध्यात्म चेतना हमारे दो जगत् हैं। एक है बाहर का जगत् और दूसरा है भीतर का जगत् । जव तक भीतर में प्रवेश नहीं होता तब तक केवल बाहर को संवारने की बात ही सामने रहती है । जब आदमी भीतर चला जाता है तब उसके सामने नया आयाम उपस्थित होता है, नई दिशा उद्घाटित होती है और अनुभव का क्षेत्र बहुत व्यापक बन जाता है। अभी हमारा अनुभव केवल पदार्थ तक ही सीमित है। अध्यात्मिक चेतना के जागे बिना हमारे सामने एक ही विषय, एक ही वस्तु रहती है । वह है पदार्थ, पदार्थ और पदार्थ । पदार्थ के अतिरिक्त कोई बात सामने नहीं होती। हमारी दृष्टि केवल पदार्थ की दृष्टि बन जाती है । तब ऐसा अनुभव होने लगता है कि पदार्थ के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं । अपदार्थ नाम कोई तत्व है ही नहीं। आज के वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे कणों की खोज की है, जो अपदार्थ हैं । उन्होंने पदार्थ के जो लक्षण निश्चित किये हैं, उनमें ये लक्षण नहीं मिलते । वे कण पदार्थ-विरोधी कण हैं। उनमें पदार्थ के लक्षण घटित नहीं होते। वे प्रतिकण कहलाते हैं। प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने, दार्शनिकों ने एक ऐसा तत्व खोजा, जो पदार्थ नहीं था, वस्तु नहीं था। उन्होंने उसका नाम रखा-आत्मा, चेतन । यह पदार्थ से विपरीत अपदार्थ था। पदार्थ अचेतन है। जो अपदार्थ है वह चेतन है, आत्मा है। इस प्रकार तत्व के दो प्रकार हो गए-एक चेतन और दूसरा अचेतन । पदार्थ या पुद्गल हमारा विषय बनता है । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श---इन सबको हम जानते हैं। इनको जानने का साधन है---इन्द्रियां । वे हमारे पास हैं। हम इनको विषय बना लेते हैं। आत्मा हमारा विषय नहीं बनता क्योंकि उसे जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है । इन्द्रियां, मन और बुद्धि आत्मा को नहीं जान सकतीं। इसलिए आत्मा हमारा विषय नहीं बनती और वह विषय इसलिए नहीं बनती कि उसके बारे में हमें कोई अनुभव नहीं है, ज्ञान नहीं है। कुछ व्यक्ति आत्मा के विषय में बहुत बोलते हैं। क्या हमारे पास कोई साधन है, जिससे हम आत्मा को ज्ञान का विषय बना सकें ? आत्मा ज्ञेय बन सके, ऐसा कौन सा साधन है हमारे पास ? जिस आत्मा को हम केवल मान रहे हैं, उसे जानने का उपाय क्या है ? मानने में कुछ करना नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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