Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 181
________________ अध्यात्म चेतना १७१ में आर्थिक विकास उतना नहीं हुआ जितना वैयक्तिक चेतना वाले विकास कर पाये हैं । सहकारी समितियां तथा सहकारी भंडारों की सारी स्थितियां हमारे सामने हैं। उनमें एक व्यक्ति सोचता है कि वह करेगा और दूसरा सोचता है कि वह करेगा। यह वैयक्तिक चेतना का परिणाम है। स्वार्थ चेतना और वैयक्तिक चेतना तभी समाप्त हो सकती है जब अध्यात्म की चेतना जाग जाती है । आध्यात्मिक चेतना के जाग जाने पर व्यक्ति यह नहीं सोचता कि मैं क्यों करूं? वह प्रत्येक कार्य अपना धर्म मानकर करता है । उसमें कर्त्तव्य भी नीचे रह जाता है। दो प्रेरणाएं हैं-कर्त्तव्य की प्रेरणा और धर्म की प्रेरणा। सामाजिक चेतना के जागरण में कर्तव्य की प्रेरणा मुख्य होती है और आध्यात्मिक चेतना के जागरण में धर्म की प्रेरणा मुख्य होती है। एक व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना जागृत है। उसको किसी ने गाली दी। वह गाली को सहता है, इसीलिए कि सहना उसका धर्म है। वह मानता है-सहना मेरा धर्म है। आध्यात्मिक चेतना के जाग जाने पर सारा दृष्टिकोण बदल जाता है। उसमें प्रतिशोध की चेतना ही खत्म हो जाती है । कोई पीटता है, मारता है, तो वह यह सोचता है कि इसने इतना ही तो किया। इस प्रकार वह उसको सह लेता है । उसका सारा चिंतन, विचार, दृष्टिकोण बदल जाता है । नैतिक चेतना का विकास समाज और व्यवहार के क्षेत्र में जरूरी होता है किन्तु आध्यात्मिक चेतना के जागे बिना नैतिक चेतना नहीं जागती । वहां फिर प्रवंचनाएं शुरू हो जाती हैं। आध्यात्मिक चेतना के जागे बिना आदमी प्रामाणिक रहना चाहता है, निश्छल व्यवहार करना चाहता है, पर वैसा कर नहीं सकता। एकाध बार कर भी लेता है तो भी वह स्थिर नहीं रह पाता। वह प्रवंचना करता है, गालियां निकालता है और प्रसन्न हो जाता है। एक व्यक्ति मृतकार्य सम्पन्न करने के लिए एक तीर्थ स्थान पर गया । वहां के पंडों ने उसे आलू न खाने के लिए कहा। उसने आलू न खाने की प्रतिज्ञा कर ली। आध्यात्मिक चेतना से प्रतिज्ञा नहीं की थी। दबाव या उपदेश के प्रभाव में आकर प्रतिज्ञा की थी। वह घर आया। उस दिन घर पर मेहमान भी आए हुए थे। आलू की सब्जी बनी थी। मेहमान जानते थे कि इसने आलू न खाने की प्रतिज्ञा की है। थाली में आलू परोसे गए । एक आलू लुढ़ककर उसकी ओर आ गया। उसने तत्काल उसे खा लिया। लोगों ने कहा-अरे, आलू खा रहे हो। वह बोला-आलू नहीं खा रहा हूं। मैं तो 'लुढ़कन' खा रहा हूं। यह है प्रवंचना, छलना। आध्यात्मिक चेतना के अभाव में यह सब होता है । आध्यात्मिक चेतना के जाग जाने पर न सामाजिक चेतना के विकास की कठिनाई रहती है और न नैतिक चेतना के विकास की कठिनाई रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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