Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 136
________________ १२६ अवचेतन मन से संपर्क देश-सापेक्ष या काल-साक्षेप होता है कि अमुक व्यक्ति इस क्षेत्र में नहीं है या इस काल में नहीं है। किन्तु उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ है । अस्तित्व तो है। चित्त निरुद्ध हो गया, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें संस्कार का प्रवाह नहीं है । उसमें संस्कार का प्रवाह चल रहा है, विपाक हो रहा है, उदय हो रहा है, वृत्तियां जाग रही हैं, किन्तु वह एक वृत्ति पर इतना टिक गया, इतना रुक गया कि दूसरी सारी वृत्तियां उसके लिए व्यर्थ बन गई हैं, अकिचित्कर हो गई हैं। कभी-कभी एक विषय के प्रति इतना गहरा आकर्षण पैदा हो जाता है कि आदमी उसमें तल्लीन हो जाता है, सामने घटने वाली घटना से भी वह अनजान रह जाता है । अनेक घटनाएं घटती हैं, पर एकाग्रता की स्थिति में आदमी को उसका भान नहीं रहता। __ एकाग्रता का अर्थ है-एक विषय पर चित्त का निरुद्ध हो जाना । चित्त का टिक जाना। इसे सरल भाषा में यों कहा जा सकता है कि चित्त का एक आलंबन पर जम जाना एकाग्रता है। अनेक लोग कहते हैं-ध्यान में आलम्बन लेना जरूरी नहीं हैं । बस बैठ जाओ, आंखें बन्द कर लो, शरीर का शिथिलीकरण कर लो। इससे निर्विकल्प अवस्था प्राप्त हो जाएगी। यदि इतनी सीधी बात होती निर्विकल्प अवस्था की तो फिर सविकल्प ध्यान करने की आवश्यकता ही नहीं होती। भीतर से दबाव आ रहा है वृत्तियों का, बाहर से दबाव आ रहा है नाड़ी-संस्थान के द्वारा गृहीत संवेगों का, दोनों ओर के दबावों से घिरा हुआ आदमी और दोनों ओर से घिरा हुआ चित्त, फिर भी निर्विकल्प अवस्था की उपलब्धि ! अनहोनी बात है। यह समझने की भ्रान्ति या गहराई से मनन करने की कमी के कारण हुआ है। हम किसी बात पर नहीं सोच रहे हैं, फिर भी हम निविकल्प नहीं है। नाड़ी-संस्थान बराबर काम कर रहा है । सर्दी का अनुभव हो रहा है तो निर्विकल्प अवस्था कहां है ? गर्मी का अनुभव हो रहा है तो निर्विकल्प अवस्था कहां है ? प्रकाश और अंधकार का अनुभव हो रहा है तो निर्विकल्प अवस्था कहां है ? बाहर से आने वाले सारे प्रभावों की अनुभूति हो रही है तो फिर निर्विकल्प कहां है ? निर्विकल्पता और सविकल्पता का भेद नहीं किया गया, यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है। एक बार बादशाह ने परीक्षा करनी चाही। दो हार बनवाए । एक हार असली फूलों का और दूसरा हार कागज के फूलों का । बादशाह ने सभी सभासदों से पूछा- बताओ, असली हार कौन सा है और नकली हार कौन सा है ? असमंजस में पड़ गए। दोनों में भेद कर पाना संभव नहीं था। नकली हार भी बहुत सुन्दर और असली जैसा ही बना था। कोई सभासद बता नहीं पाया। बीरबल आया। उससे भी वही प्रश्न किया। बीरबल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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