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अनेक रोग : अनेक चिकिसा
प्रश्न होना स्वाभाविक है कि प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में एक ही प्रयोग क्यों न कराया जाए ? श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा आदि विभिन्न प्रयोग क्यों कराए जाते हैं ? प्रश्न सहज उठता है, पर क्या करें, प्रकृति का नियम ही ऐसा है कि बीमारी एक नहीं है, बीमारियां अनेक हैं। जब बीमारियां अनेक हैं तो उनकी चिकित्सा की विधियां भी अनेक होंगी, औषधियां भी अनेक होंगी।
प्राकृतिक चिकित्सा में माना जाता है कि बीमारी एक ही है । विजातीय तत्त्व का बढ़ना ही बीमारी है। यदि पेट साफ हो, विजातीय तत्त्व एकत्रित न हो तो कोई बीमारी नहीं हो सकती। कुछ अंशों में यह बात ठीक है पर कोई भी एक बात पूरी ठीक नहीं हो सकती। हर बात अपूर्ण होती है। अनेकता है तो अनेकता से ही प्रयत्न करना होगा। दुनिया में ऐसा एक भी तत्त्व नहीं है जो सब प्रकार से काम दे सके । एक सुंठ के गांठिये से पंसारी बनने की बात समझदारी नहीं मानी जा सकती। जहां अनेक रोग हैं, अनेक परिस्थितियां और अनेक कारण हैं, वहां अनेक उपाय भी आवश्यक होंगे।
प्रेक्षाध्यान की पद्धति में अनेक उपाय काम में लिए जाते हैं । उन अनेक उपायों में भी एक आधारभूत उपाय है प्रेक्षा। जैसे-जैसे देखने का विकास होता है, अनुभव का विकास होता है, वैसे-वैसे बीमारियां कटती चली जाती हैं। किन्तु कठिनाई एक है कि सभी आदमी समान नहीं होते । सबकी क्षमता एक रूप नहीं होती। कुछ लोग स्थूल बुद्धि वाले, स्थूल प्रकृति वाले होते हैं और कुछ लोग सूक्ष्म बुद्धि वाले, गहराई में जाने वाले होते हैं । कुछ लोगों को देखने वाली बात समझ में ही नहीं आती । बड़ा प्रश्न होता है कि देखें क्या ? आंखें बन्द हैं, फिर क्या देखें, कैसे देखें ? श्वास और शरीर को क्या देखा जाए ? देखने की बात समझ में आ जाए, यह बहुत कठिन बात है । अनेक प्रयोग हैं । जो साधक प्रेक्षा करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं, वे कायोत्सर्ग की ओर मुड़ें। कायोत्सर्ग में देखना कुछ भी नहीं होता, केवल शरीर को ढीला करना होता है। उसे तनावमुक्त करना होता है। यह कार्य सरल है पर कुछ लोग यह सरल कार्य भी नहीं कर पाते। जब वे कायोत्सर्ग करते हैं, तब उनकी अकड़न अधिक बढ़ जाती है। वे तनाव से भर जाते हैं । उनके लिए शिथिलीकरण तनाव का हेतु बन जाता है। जो कायोत्सर्ग भी न कर सकें, वे निराश न हों। वे कम से कम अनुप्रेक्षा करें । अनुप्रेक्षा में बोलना
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