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बिम्ब : प्रतिबिम्ब
जहां कुछ चिन्तक एकत्रित होते हैं, वहां चितन और परामर्श चलता ही रहता है । अनेक प्रश्न उठते हैं और अनेक समाधान प्रस्तुत किये जाते हैं । चिंतन के संदर्भ में एक प्रश्न आया कि सबसे सरल क्या है ? बहुत सीधा और सरल प्रश्न था । पर चिंतन जब चलता है तब टेढ़ी बात सीधी बन जाती है और सीधी बात टेढ़ी बन जाती है। सबसे सरल क्या है ? यह प्रश्न भी चचित होते-होते जटिल बन गया। अनेक उत्तर आए । एक उत्तर मन को भा गया। एक व्यक्ति ने कहा-सबसे सरल है-दूसरे के दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखना।
इससे जुड़ा हुआ दूसरा प्रश्न था-सबसे कठिन क्या है ? इसका उत्तर था-अपने दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखना।
प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के लिए इन दोनों सूत्रों को समझना बहुत उपयोगी है । यदि हम थोड़ी मीमांसा करें तो पता चलेगा कि बहुत कम व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अपने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख सकें । वे देखते ही नहीं । सदा दूसरे का दर्पण सामने रहता है। दो व्यक्ति भोजन करने बैठे । दोनों को भोजन परोसा गया । एक ने खा लिया । दूसरा खातेखाते सोचता है --इसने खा लिया, मैं अभी तक नहीं खा पाया। इसने अधिक खा लिया, मैंने थोड़ा खाया है। यह पचा सकता है, मैं नहीं पचा सकता । तत्काल दूसरे का दर्पण सामते आ जाता है । मुझे कितना खाना चाहिए, यह बात गौण हो जाती है और दूसरा कितना खाता है, यह बात मुख्य बन जाती है। समाज के सारे व्यवहारों को देखें तो पता चलेगा-- कोई भी आदमी इस कसौटी को सामने नहीं रखता कि मुझे क्या करना चाहिए, कब करना चाहिए, कितना करना चाहिए ? वह सदा इस बात को ध्यान में रखता है कि पड़ोसी क्या करता है ? कैसे करता है ? कितना करता है ? प्रत्येक व्यक्ति इसी को आधार मानकर कार्य करता है। इसका अर्थ यही है कि व्यक्ति के पास अपना कोई पैरामीटर नहीं है । उसका मानदंड बनता है दूसरा व्यक्ति।
सिकन्दर के सामने एक डाकू को उपस्थित किया गया । सिकन्दर ने पूछा-तुझे क्या दंड मिलना चाहिए ? उसने कहा- दंड कुछ भी हो, मृत्युदंड नहीं मिलना चाहिए । सिकन्दर ने पूछा-इतना अन्याय और अनर्थ किया है तुमने, फिर मृत्युदंड क्यों नहीं मिलना चाहिए ? वह बोला-मुझे यदि मृत्युदंड
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