Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 166
________________ अवचेतन मन से संपर्क यह आज बहुत स्पष्ट है । एक व्यक्ति अपनी व्यावसायिक, क्षमता औद्योगिक क्षमता के कारण वस्तुओं का विशाल संग्रह कर लेता है, जिसकी निष्पत्ति या परिणाम है विग्रह । चाहे वर्ग-संघर्ष हो, चाहे मजदूरों का संघर्ष हो, चाहे हड़ताले या घेराव हों-इनका मूल कारण है वस्तु का संग्रह । वैचारिक आग्रह और वस्तु-संचय-ये दोनों वैयक्तिक चेतना के परिणाम हैं । जब व्यक्तिगत चेतना प्रबल बन जाती है, व्यक्तिगत अस्मिता सशक्त बन जाती है तब समाज का अस्तित्व सामने नहीं रहता और ये समस्याएं या विग्रह उभर आते हैं । यदि शिक्षा के प्रारम्भ में ही सामाजिक चेतना को प्रबल बनाने का कोई उपक्रम हो, प्रत्येक विद्यार्थी की सामाजिक चेतना जाग जाए तो परिणाम बदल जाएगा, आग्रह कम हो जाएगा । सामंजस्य बढ़ेगा। तब वह सोचेगा---एक है मेरा विचार और एक है इनका विचार-दोनों में तनाव होगा, खिंचाव होगा तो रस्सी टूट जाएगी। पूज्य कालगणीजी कहा करते थे----एक रस्सी को दो व्यक्ति, दो छोरों से पकड़कर खींच रहे हैं। दोनों दृढ़ता के साथ खींच रहे हैं। रस्सी टूट गई । दोनों जमीन पर धड़ाम से गिर पड़े। एक रस्सी को खींचता है और दूसरा व्यक्ति उसे ढीली छोड़ देता है तो खींचने वाला गिर जाएगा, ढीली छोड़ने वाला खड़ा रह जाएगा और यदि दोनों रस्सी को ढीली छोड़ देते हैं तो दोनों खड़े रह जाते हैं । यह है समझौते की प्रक्रिया। विचारों में सामंजस्य बिठाया जा सकता है । असंभव कुछ भी नहीं है । यह अहंकार टूटे कि मैं जो कहतासोचता हूं, वही सही नहीं है। दूसरे की बात भी सही हो सकती है । संभव है-मेरे चिन्तन का प्रमाद हो, चिन्तन में कोई अन्तर हो, कोई त्रुटि हो, बात पूरी समझ में न आई हो, सामने वाला व्यक्ति ठीक सोच रहा हो, मुझे ध्यान देना चाहिए। 'ताओ' का प्रसंग है। किसी ने कुछ पूछा। ताओ ने कहा-पूरा चित्र मेरे सामने नहीं है । जब तक पूरा चित्र सामने नहीं होता तब तक मैं कैसे दावा कर सकता हूं कि यही बात ठीक है। अधूरे चित्र के आधार पर कभी कोई पूरी कल्पना नहीं की जा सकती। यह सामंजस्य स्थापित करने का एक मार्ग है । जब दोनों अपने-अपने आग्रह से कुछ हटते हैं, तब समझौता हो जाता है । आग्रह में कोई बात नहीं बनती। ऐसे आदमी भी होते हैं, जो झूठी बात को पकड़ लेते हैं, आग्रह कर बैठते हैं। उसे छोड़ते नहीं। इसका कारण है कि उसमें वैयक्तिक चेतना काम करती है। वह सोचता है, इससे मुझे क्या लेना-देना। यह कौन होता है मुझे समझाने वाला । वह यह नहीं सोचता-वह भी समाज का एक अंग है, मैं भी समाज का एक अंग हूं। हमें समाज में साथ-साथ जीना है, सामाजिक जीवन जीना है। इसकी बात पर भी मुझे सोचना चाहिए। ऐसा नहीं होता। इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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