Book Title: Avchetan Man Se Sampark
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 164
________________ १५४ अवचेतन मन से सम्पर्क रहे तो शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रहता । उसकी अर्थवत्ता इसी में है कि वह प्रत्येक व्यक्ति में कुछ होने ( to be ) की भावना जगाए । होना है, आगे बढ़ना है, जैसा का तैसा नहीं रहना है— इस भावना का जागरण अपेक्षित है । मिट्टी को केवल मिट्टी ही नहीं रहना है, उसे घड़ा बनना है, आधार बनना है । यदि यह बनने की बात जाग जाए तो शिक्षा सार्थक हो जाती है । वर्तमान में एक ओर विद्यालयों में शिक्षा चलती है, दूसरी ओर धर्म के क्षेत्र में शिक्षा चलती है । विद्यालयों की शिक्षा तथ्यात्मक चेतना को जगाती है । उस शिक्षा के कारण तथ्यों और आंकड़ों की जानकारी बढ़ी है । विद्यार्थी उसमें व्युत्पन्न हो जाता है । उसमें आकलनात्मक ज्ञान बहुत बढ़ जाता है किन्तु इसके साथ तीन बातें और अपेक्षित होती हैं । चरित्र विकास के लिए केवल जानना ही पर्याप्त नहीं है, केवल पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है किन्तु उसके साथ-साथ सामाजिक चेतना का विकास, भौतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास अपेक्षित हैं । यदि ये तीनों हों तो एक सुन्दर श्रृंखला बनती है । इस प्रकार हमारे सर्वांगीण विकास के ये चार सूत्र हैं १. तथ्यात्मक चेतना का विकास । ३. नैतिक चेतना का विकास । २. सामाजिक चेतना का विकास । ४. आध्यात्मिक चेतना का विकास जब इन चार सूत्रों के आधार पर व्यक्तित्व का निर्माण होता है तब उस व्यक्तित्व से चारित्र की आशा की जा सकती है । यह स्पष्ट है कि आज की अनेक समस्याएं चारित्रिक विकास के अभाव में पनप रही हैं । आज प्रत्येक क्षेत्र समस्याओं से आकुल है । भ्रष्टाचार है, पक्षपात है, आपाधापी है, भाई-भतीजावाद है, संग्रह की आकांक्षा है, जमाखोरी और रिश्वत का बोलबाला है— ये सारी समस्याएं है । सब जानते हैं । केवल समस्याओं को जानने मात्र से अथवा समस्याओं के गीत गाने मात्र से समस्याओं से छुटकारा नहीं मिल सकेगा । आखिर समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना होगा । समस्याओं के समाधान का पहला सूत्र है - सामाजिक चेतना का विकास । प्रत्येक व्यक्ति में यह चेतना विकसित होनी चाहिए --- 'मैं अकेला नहीं हूं ।' यदि समाज के क्षेत्र में 'मैं अकेला हूं, ' -- इस चेतना का विकास हो जाए तो सामाजिक चेतना का लोप हो जाएगा । 'मैं अकेला हूं' -- यह अध्यात्म के क्षेत्र की चेतना है । समाज में इससे काम नहीं चलता । व्यक्ति को समाज के परिप्रेक्ष्य में उस चेतना का विकास करना है कि मैं अकेला हूं, किन्तु उसकी एक सीमा है । समाज की सीमा में इसका विकास आवश्यक है कि 'मैं अकेला नहीं हूं ।' इस चेतना का विकास अनेक बुराईयों को रोक देता है । आज पदार्थ के जगत् में जीने वाले व्यक्ति के लिए पदार्थ संग्रह का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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