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मनोभाव की प्रक्रिया : भाव वशीकरण की प्रक्रिया
करण के द्वारा यदि विध्वंस होता है तो यह विज्ञान का दोष नहीं, यह तो प्रयोग करने वाले व्यक्ति का पागलपन है । उसके मस्तिष्क की विकृति है। क्या अध्यात्म की साधना करने वाला ऐसा नहीं कर सकता है। विनाश का प्रयोग करना न विज्ञान का पागलपन है और न अध्यात्म का पागलपन है । यह पागलपन है प्रयोक्ता का, प्रयोग करने वाले का।
हम अनेक पौराणिक घटनाएं जानते हैं। हम अनेक ऋषियों की घटनाओं को जानते हैं । अनेक ऋषियो के शाप प्रसिद्ध हैं। क्या उन शापों से आदमी नहीं मरे ? क्या शाप देकर ऋषियों ने अनेक लोगों को नहीं सताया ? शकुन्तला की क्या अवस्था हुई थी ? उसका कारण क्या ऋषि नहीं थे ? ऋषियों ने कितने व्यक्तियों और जनपदों को भस्म कर डाला । क्या यह अध्यात्म का दुरुपयोग नहीं था ? यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस वस्तु का कैसा प्रयोग करता है ?
वैश्यायन तपस्वी था। गोशालक ने उससे छेड़-छाड़ की। वश्यायन अत्यन्त कुपित हो गया। उसने तेजोलब्धि का प्रयोग किया । मुंह से आग की लपटें निकलने लगीं । क्षण भर में गोशालक वहीं राख का ढेर हो जाता पर उसे बचा लिया गया। ऐसी अनेक घटनाएं इतिहास में हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि आध्यात्मिक व्यक्ति भी अपने तपोजन्य विभूतियों का किस प्रकार प्रयोग कर दिया करते थे । दुरुपयोग होना एक अलग बात है । विज्ञान का भी दुरुपयोग हो सकता है और आध्यात्मिक शक्तियों का भी दुरुपयोग हो सकता है । यदि केवल दुरुपयोग को लेकर हम विज्ञान का कटाक्ष करते हैं तो यह बड़ी भूल है। वास्तव में विज्ञान ने भी सूक्ष्म सत्यों का अन्वेषण किया है, अवगाहन किया है, निमज्जन किया है, मंथन किया है और उन्हें अभिव्यक्ति दी है। अध्यात्म ने तो दिया ही है । सत्य की खोज सत्य की खोज है। कोई अंतर नहीं आता। वैज्ञानिक युग के कारण धार्मिक लोगों की भी यह स्थूलस्पर्शी दृष्टि कुछ कम हुई है। अन्यथा धर्म का जगत् इन शताब्दियों में इतना स्थूल बन गया कि वह केवल शब्दों के जाल में उलझ गया । उसने प्रयोग की प्रक्रिया छोड़ दी । दर्शन युग में जिन दर्शनशास्त्रों और तर्कशास्त्रों का निर्माण हुआ, वे कलेवर में बहुत बड़े, पर तथ्य में उतने ही छोटे । उनको पढ़ते-पढ़ते आदमी थक जाता है । धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में वाग्जाल का विस्तार हुआ इसलिए सूक्ष्म सत्यों का अवबोध उस जाल में दब गया। किन्तु आज विज्ञान ने अध्यात्म के समक्ष कुछ चुनौतियां प्रस्तुत की हैं। उन चुनौतियों के कारण धार्मिक जगत् में कुछ चेतना का संचार हुआ है और वह अध्यात्म की पुरानी भाषा को समझने का प्रयास कर रहा है। धार्मिक लोग सूक्ष्म सत्यों के अवगाहन की बात सोचने लगे हैं।
प्रेक्षाध्यान प्रयोग के प्रारंभ में हम उच्चारण करते हैं-आत्मा के
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