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यथार्थवादी दृष्टिकोण
युग की अपेक्षा है आध्यात्मिक व्यक्तित्व का निर्माण । यह केवल युगीन अपेक्षा ही नहीं है, यह समाज की शाश्वत अपेक्षा है।
दो प्रकार के व्यक्तित्व होते हैं--भौतिक व्यक्तित्व और आध्यात्मिक व्यक्तित्व । भौतिक व्यक्तित्व की जो कुछ रेखाएं खींची जाती हैं, वे दूसरे प्रकार की होती हैं । अहंकार और ममकार की रेखाओं से जिस व्यक्तित्व का निर्माण होता है, वह भौतिक व्यक्तित्व होता है । जिस व्यक्तित्व का निर्माण सचाइयों के आधार पर होता है, काल्पनिक रेखाओं के आधार पर नहीं होता, वह आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है ।
समाज में सबसे बड़ा प्रश्न है सम्बन्धों का । व्यक्ति अकेला नहीं है। वह समाज का जीवन जी रहा है। सामाजिक जीवन का अर्थ है संबंधों का जीवन । सम्बन्ध ही संबन्ध । पदार्थ के साथ संबन्ध, परिवार के साथ संबंध, गांव और राष्ट्र के साथ संबंध । इन संबंधों की पूरी शृंखला है । सामाजिक प्राणी इस श्रृंखला से बंधा हुआ है। संबंध छोड़े नहीं जा सकते । आध्यात्मिक व्यक्ति भी संबंधों को सर्वथा छोड़ नहीं सकता। जब तक जीवन यात्रा चलती है तब तक संबंध भी बने रहते हैं। वे छूटते नहीं । संदेह अवस्था में संबंध नहीं छूटते । विदेह अवस्था में संबंध नहीं रहते । जब तक शरीर है, इन्द्रियां हैं, मन है तब तक सारे संबन्ध छोड़े नहीं जा सकते ।।
सम्बन्धों का जीवन आध्यात्मिक व्यक्ति को भी जीना पड़ता है पर दोनों के जीवन में बहुत बड़ा अन्तर होता है। भौतिक व्यक्ति अहंकार और ममकार के साथ सम्बन्ध जोड़ता है। उसका कोई भी सम्बन्ध ऐसा नहीं होता, जिसकी पृष्ठभूमि में अहंकार न बोलता हो या ममकार की परछाई न हो। दोनों होते हैं। 'मैं हूं'--यह अनुभूति शाश्वत अनुभूति है। अपने अस्मित्व की अनुभूति है---'अहं अस्मि'-मैं हूं। किन्तु आदमी जब अहंकार के साथ जुड़ता है तब 'मैं हूं'--यह अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ प्रयोग नहीं होता, प्रतिष्ठा-पद के साथ जुड़ा हुआ प्रयोग होता है। 'मैं हूँ' का अर्थ तब हो जाता है.---'मैं धनवान हूं', 'मैं शासक हूं', 'मैं शक्तिशाली हूं' आदि-आदि । अस्तित्वबोध का अहं खतरा पैदा नहीं करता किन्तु दूसरे अहं बहुत बड़े खतरे पैदा कर देते हैं । अहं व्यक्ति व्यक्ति को बांट देता है-यह छोटा है, मैं बड़ा हं। यह नौकर है इसलिए छोटा है, मैं मालिक हूं इसलिए बड़ा हूं। आदमीआदमी के बीच एक भेदरेखा खिंच जाती है। आदमी को विभक्त करने
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