________________
यथार्थवादी दृष्टिकोण
११५
__ आज की सबसे विकट समस्या है भौतिक व्यक्तित्व का विकास । हम इसे पदार्थ विकास के साथ न जोड़ें। पदार्थ का विकास होना भौतिक व्यक्तित्व का विकास नहीं है। पदार्थ का विकास आध्यात्मिक व्यक्ति भी कर सकता है क्योंकि पदार्थ एक अपेक्षा है, आवश्यकता है। आज का आदमी पदार्थ से इतना जुड़ गया कि उसका दृष्टिकोण पदार्थ-परक बन गया।
ध्यान और धर्म की निष्पत्ति यह है कि पदार्थ और चेतना के बीच की रेखा स्पष्ट ज्ञात रहे । जब पदार्थ और चेतना की भेद रेखा विस्मृत हो जाती है तब सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। हमारा यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से निष्पन्न हो कि पदार्थ-पदार्थ है, चेतना-चेतना है। दोनों के बीच में एक भेदरेखा है।
साधक कायोत्सर्ग करते हैं। क्या वे इसीलिए करते हैं कि विश्राम मिल जाए, रक्तचाप कम हो जाए, शरीर की क्रियाएं संतुलित हो जाए ? यदि इन्हीं कारणों से किया है तो उन्होंने शवासन किया है, कायोत्सर्ग नहीं। शवासन का अर्थ है-मुर्दे का आसन । जब उस आसन में चेतना नहीं है तो वह शव आसन ही है । उसमें चेतना छूट जाती है और मुर्दे का भान होता रहता है । कायोत्सर्ग शवासन नहीं है, वह उससे भिन्न है। कायोत्सर्ग में चेतना का आभास होता है, शरीर छूटता है। काया का उत्सर्ग करने वाला चेतन बच जाता है। एक में चेतन बचता है और दूसरे में शरीर बचता है। दोनों शब्द यही स्पष्ट ध्वनित करते हैं, दोनों शब्दों का अपना गहरा अर्थ है । कायोत्सर्ग में जो जाता है, वह चेतन है, द्रष्टा है, वह काया को छोड़ता है। दोनों के बीच में एक रेखा है। तुम अलग हो, मैं अलग हूं। हम दोनों साथसाथ जी रहे हैं, किन्तु कायोत्सर्ग में मैं इस सचाई का अनुभव कर रहा हूं कि तुम तुम हो, मैं मैं हूं। यदि इस सचाई का अनुभव नहीं होगा तो कायोत्सर्ग नहीं होगा, कोरा शवासन होगा।
भावना शुद्धि के लिए भावना का विकास अपेक्षित है। हर क्रिया के साथ भाव जुड़ना चाहिए। प्रत्येक क्रिया के साथ चैतन्य का अनुभव होना चाहिए । चैतन्य हमारा यह है-चेतन अलग है, शरीर अलग है। शरीर से भिन्न चेतना का अनुभव करना चैतन्य है, जागरूकता है। कायोत्सर्ग देहाध्यास को मिटाने की महत्त्वपूर्ण साधना है। इससे विवेक चेतना का जागरण होता है। विवेक चेतना है-शरीर अलग है, मैं अलग हूं। जब शरीर के साथ भी ममकार नहीं रहा तो फिर अन्य पदार्थ के साथ भी ममकार नहीं रहेगा। सारे ममकार का जनक है शरीर। शरीर के प्रति जितनी गहरी मूर्छा होती है, उतनी गहरी मूछी पदार्थों के साथ भी होती चली जाती है। जिस व्यक्ति का अपने शरीर के प्रति ममत्व छूट गया, जिसने चैतन्य का शरीर से पृथक अनुभव कर लिया, वह कभी शरीर के प्रति मूछवान् नहीं हो सकता। जब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org