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बौद्धिक और भावनात्मक विकास का संतुलन
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ही है। उसका कार्य मूढ़ता को मिटाने का नहीं है । हमें यह स्पष्ट बोध होना चाहिए कि मूर्खता मिट जाने पर भी मूढ़ता नहीं मिटती । बौद्धिक विकास हो जाने पर भी मूढ़ता नहीं मिटती। मूढ़ता मिटती है भावात्मक विकास से । आज अपेक्षा है कि ज्ञान और आचरण की दूरी मिटे । इसके लिए अत्यन्त आवश्यक यह है कि बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास का संतुलन हो । दोनों का संतुलित विकास होना चाहिए । एक बहुत पढ़ा-लिखा आदमी घर में कलह करता है, समाज में कलह के बीज बोता है, गालियां बकता है, कुछ भी सहन नहीं कर सकता, स्वयं बेचैन होता है और दूसरों को बेचैन बना देता है । ऐसा क्यों होता है ? वह मूर्ख तो नहीं है। वह विद्यावान् है पर उसमें मोह की इतनी प्रबलता है, अहंकार और ममकार इतना तीव्र है कि वह स्वयं दु:खी रहता है और दूसरों को दुःखी कर देता है । भावनात्मक विकास के द्वारा यह स्थिति बदल सकती है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में मस्तिष्क संबंधी अनेक तथ्य प्रतिपादित हैं पर वहां ग्रन्थितंत्र के विषय में कोई बात नही कही गई है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव हमारे भावों को कैसे प्रभावित करते हैं ? वे बीमारियों के लिए कितने उत्तरदायी हैं ? आदि विषयों पर प्राचीन ग्रन्यों में कोई जानकारी नहीं मिलती। आज के मेडीकल साइन्स में इन सबका पर्याप्त विश्लेषण प्राप्त होता है। यह नई खोज है और आज भी यह खोज आगे से आगे चल रही है । ग्रन्थितन्त्र के स्रावों के विश्लेषण से हमारे उतरते-चढ़ते भावों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । ग्रन्थितन्त्र और भावनाओं का गहरा संबंध है । कुछ व्यक्तियों का ग्रन्थितन्त्र संतुलित रूप में काम करता है और कुछ व्यक्तियों में वह असंतुलित होता है । एक ग्रन्थि अधिक स्राव करती है और दूसरी ग्रन्थि कम स्राव करती है। किसी व्यक्ति में कोई ग्रन्थि काम करती है और किसी में कोई । कुछ व्यक्तियों की पिनियल ग्लैण्ड अधिक सक्रिय होती है और कुछ व्यक्तियों की एड्रीनल ग्लैण्ड अधिक सक्रिय होती है । जिस व्यक्ति में द्वेष, तनाव, आवेश अधिक हैं तो यह स्पष्ट है कि उसकी एड्रीनल अधिक सक्रिय है। जिस व्यक्ति में शीघ्र निर्णय की क्षमता है, जो अन्तर् प्रज्ञा से देखता है, जो गहराई में जाता है तो मानना चाहिए कि उसकी पिच्यूटरी ग्लैण्ड अच्छा काम कर रही है। जिस व्यक्ति का काम उद्दीप्त है, कामवासना सक्रिय है, निरंतर काम का तनाव बना रहता है तो समझा जा सकता है कि गोनाड्स ज्यादा काम कर रहा है । प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर् है । यह अन्तर् ग्रन्थियों के स्रावों के असंतुलन और संतुलन से पैदा होता है।
प्रश्न होता है कि क्या संतुलन प्राप्त किया जा सकता है ? संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है ? इसका उत्तर 'हां' में दिया जा सकता है । प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया ग्रन्थियों के स्रावों को संतुलित और परिष्कृत
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