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संबंधों का नया क्षितिज
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है । यह क्राईटेरिया है । ध्यान सधा या नहीं, इसे जानना हो तो व्यक्ति के स्वभाव को देखें । यदि स्वभाव बदला है, आदतें बदली हैं, सहजता, सौम्यता और सहिष्णुता आयी है तो मान लें---ध्यान परिपक्व हो रहा है। यदि यह सब नहीं हुआ है या नहीं हो रहा है तो स्पष्ट है---ध्यान में कहीं न कहीं कमी
जर्मनी का एक युवा न्यायाधीश प्रेक्षा ध्यान शिविर में आया। कुछ दिन रहा। उसे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए कहा गया। उसने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही। उसने कहा-मैं अभी कुछ नहीं बता सकता । मैं जब जर्मनी जाऊंगा, अपनी पत्नी के साथ, बच्चों के साथ रहूंगा, मित्रों के साथ रहूंगा और वे यदि महसूस करेंगे कि मेरे पूर्ववर्ती व्यवहार में और वर्तमान व्यवहार में रात-दिन का अन्तर है, यह व्यवहार अधिक सौम्य और सौहार्दपूर्ण है, तब मैं बता पाऊंगा कि क्या फलश्रुति हुई है। न्यायाधीश ने बड़े मर्म की बात कही। वह जर्मनी गया। ध्यान का क्रम चलता रहा। एक वर्ष पश्चात् पुनः भारत आया। हमसे मिला। पूछने पर उसने कहा--'मेरा ध्यान का अभ्यास उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। अब मैं इतनी गहराई में जाने लगा हूं कि अभियुक्त मेरे सामने खड़ा होता है और मैं जब उस पर एकाग्र होता हूं तो मुझे ज्ञात हो जाता है कि यह अपराधी है या नहीं ? मेरे सामने स्पष्ट चित्र आ जाता है।
व्यक्तित्व की कसौटी है व्यवहार । व्यवहार में आदमी सम, सहिष्णु, करुणा और शांत होता है तो ध्यान की स्वयं फलश्रुति सामने आ जाती है। अकेला व्यक्ति शांत है या अशांत, कोई महत्त्व की बात नहीं है। भीड़ में, समस्याओं की संकुचलता में वह शांत और सम रहता है तो यह विशेषता है । यह ध्यान की निष्पत्ति है।
व्यक्ति स्वयं देखे-ध्यान से क्या परिवर्तन हो रहा है ? परिवर्तन के आधार पर ही यह समझा जा सकता है कि ध्यान सध रहा है या नहीं। ध्यान से समग्र जीवन में परिवर्तन आना चाहिए-आहार और चर्या का परिवर्तन, नींद और जागृति में परिवर्तन, व्यवहार और आचरण में परिवर्तन । ध्यान समग्र जीवन का स्पर्श करता है। कोई यह समझे कि ध्यान तो पारलौकिक है-यह एकांगी दृष्टिकोण होगा। ध्यान का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है मानवीय संबंधों पर । ध्यान करने वाले व्यक्ति में निर्मलता, सहिष्णुता, ऋजुता और निर्लोभता का विकास होता है।
__दो भाई आपस में लड़ रहे थे। धन के बटवारे का प्रश्न था। लोगों के समझाने पर भी वे नहीं समझ पा रहे थे। एक भाई प्रेक्षाध्यान शिविर में आया। तन्मयता से उसने साधना की। वह शिविरकाल पूरा होने पर घर गया । उसका अंतःकरण बदल चुका था। उसने भाई को बुलाकर कहा
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