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बौद्धिक और भावनात्मक विकास का संतुलन
दो शब्द बहुत प्रचलित हैं—मूर्ख और मूढ़ । सामान्यतः दोनों को पर्यायवाची माना जाता है, किन्तु वस्तुतः ये पर्यायवाची नहीं हैं। इन दोनों की अभिव्यंजना में बहुत अन्तर है। मूर्ख वह होता है जिसमें जानने-समझने की क्षमता कम होती है । मूढ वह होता है जो पढ़ा-लिखा होने पर भी मूर्छा से ग्रस्त होता है । वह जानते-समझते हुए भी विष पी लेता है, आत्महत्या कर लेता है।
आदमी अनजान में बुरे आचरण नहीं करता, वह जानबूझकर करता है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो अनजान में बुराई करते हैं। अधिकांश लोग जानकर ही बुरे आचरण करते हैं । इसका कारण मूर्खता नहीं, मूढ़ता
हमारे व्यक्तित्व की दो धाराएं हैं । एक है चेतना की धारा और दूसरी है जागृति की धारा । चेतना की धारा का अवरोधक है अज्ञान, मूर्खता और जागृति की धारा का अवरोधक है मोह, मूर्छा, मूढ़ता । बहुत बार प्रश्न होता है कि आज शिक्षा का इतना विकास हुआ है, पर बुराइयां प्रतिदिन क्यों बढ़ती जा रही हैं ? पढ़ा-लिखा आदमी असत् आचरण क्यों करता है ? कथनी और करनी में अन्तर क्यों है ? ज्ञान और आचरण में दूरी क्यों है ? यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है, पर वास्तव में इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है । ज्ञान का सीधा संबंध आचरण से नहीं है । ज्ञानी व्यक्ति आचारवान् हो ही, यह आवश्यक नहीं है। आचारवान् ज्ञानी हो ही, यह भी आवश्यक नहीं है । ये दो धाराएं हैं । कर्मशास्त्र में दो शब्द हैं । एक है ज्ञानावरण कर्म और दूसरा है मोहकर्म । ज्ञानावरण कर्म का कार्य है ज्ञान को आवृत करना और मोहकर्म का काम है मूर्छा पैदा करना, विकार पैदा करना, मूढ़ता पैदा करना । यह कर्म दृष्टि का विकार और चारित्र का विकार-दोनों को पैदा करता है। आबश्यकता है कि मोह के स्थान पर 'अमोह' हो और ज्ञानावरण के स्थान पर ज्ञान का विकास हो । आज की परिस्थिति में ज्ञान का विकास बहुत हो रहा है, बौद्धिक विकास चरम को छू रहा है । आज जितनी विद्याएं हैं, जितने अध्यापक और विद्यार्थी हैं, उतने प्राचीन काल में नहीं थे। आज शिक्षासंस्थान बहुत हैं, पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले भी बहुत हैं। इतना होने पर भी आदमी का आचरण अप्रभावित है। इसका कारण है कि मूर्खता मिटी है, मूढ़ता ज्यों की त्यों विद्यमान है । विद्यालय का काम तो मूर्खता को मिटाना
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