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बौद्धिक और भावनात्मक विकास का संतुलन
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ह्रास नहीं होता है तो आश्चर्य है। क्योंकि हमारे पास भावनात्मक विकास की, मूढ़ता को मिटाने की कोई प्रक्रिया नहीं है। प्रत्येक सरकार यह चाहती है कि उसके राष्ट्र का कोई भी सदस्य निरक्षर न रहे, सब साक्षर हो जाएं। साक्षरता के लिए तीव्र अभियान चल रहे हैं। मैं बौद्धिकता को व्यर्थ नहीं मानता, वह चेतना के विकास की एक भूमिका है । वह बहुत आवश्यक भी है किन्तु केवल बौद्धिकता खतरा पैदा करती है। उसके साथ यदि भावनात्मक विकास होता है तो वह वरदान बन जाती है । केवल बौद्धिक विकास से आदमी अपने आवेशों, आवेगों और चरित्र में विकृति पैदा करने वाले तत्त्वों पर नियंत्रण नहीं कर सकता, इसलिए वह बौद्धिकता अभिशाप बन जाती है। अमृत विष बन सकता है और और विष अमृत बन सकता है। दोनों सापेक्ष हैं। इस दुनियां में एकान्ततः न कुछ भी अमृत है और न कुछ भी विष है। मात्रा के अतिरेक में अमृत विष का काम करता है और मात्रा के संतुलन में विष अमृत का काम करता है।
प्राचीन काल का बहुचर्चित एक प्रश्न है-'मैं कौन हूं?' आज इसके स्थान पर यह पूछा जाना चाहिए- 'मैं कहां हूं?' 'मेरी चेतना कहां है ?' सम्पूर्ण खोज के पश्चात् आज यह प्रतीत हो रहा है कि मनुष्य की चेतना अधोगामी हुई है। उसकी चेतना नाभि के आस-पास परिक्रमा कर रही है, इसीलिए उसकी अपराधी मनोवृत्ति को सहारा मिल रहा है और प्रतिदिन नएनए अपराध सामने आ रहे हैं । प्राचीन साहित्य में, अध्यात्म योग साहित्य में नाभि को अभिव्यक्ति का क्षेत्र माना है । यह प्राण ऊर्जा का निधि-क्षेत्र है। आज शारीरिक विज्ञान में इसे 'एड्रीनल' कहा गया है। यही अपराधों का मूल-केन्द्र है। यदि आदमी की चेतना यहीं स्थित रही, भावनात्मक परिष्कार घटित नहीं हुआ तो जागतिक वातावरण और अधिक विकृत होगा।
___ आज यह सद्यस्क आवश्यकता है कि व्यक्ति भावनात्मक विकास की प्रक्रिया को अपनाए। प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया का एक अंग है-चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा । यह भावनात्मक परिष्कार की अचूक प्रक्रिया है। हमारे शरीर में अनेक मग्नेटिक फील्ड हैं, चुम्बकीय क्षेत्र हैं । वे रसायनों से प्रभावित होते हैं। वहां हमारी चेतना और हमारी वृत्तियां प्रकट होती हैं । जब हमारा भाव अशुद्ध होता है तो ग्रन्थियों के स्राव भी खराब होते हैं। मनुष्य का चिन्तन और आचरण जैसा होता है, वैसे ही ग्रन्थियां के स्राव होते हैं। ग्रन्थियों को प्रभावित करने वाले तीन तथ्य हैं-चिन्तन, प्रवृत्ति और संवेदन । यदि आदमी का चिन्तन, प्रवृत्ति और संवेदन अच्छा होता है तो ग्रन्थियों का स्राव भी अच्छा होता है। एक वैज्ञानिक ने सुन्दर लिखा था-वी आर नाइस टुडे एण्ड दे आर नाइस टुमारो (We are nice today and they are nice tomorrow) यदि हम ग्रंथियों के प्रति अच्छा व्यवहार
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