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अवचेतन मन से संपर्क
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यह हमारी जागरूकता और पुरुषार्थ पर निर्भर है । यदि हम अप्रमत्त और जागरूक रहते हैं तो बुरे विचार की धारा को रोककर अच्छे विचार की धारा को प्रवाहित कर सकते हैं । यदि हम जागरूक नहीं हैं तो बुरे विचार की धारा प्रवाहित हो जाती है । ध्यान का प्रयोग जागरूकता का प्रयोग है | श्वास के प्रति जागरूक होने का अर्थ है जीवन की समग्र जागरूकता का विकास । जो व्यक्ति श्वास के प्रति जागरूक बनता है, वह नाड़ी संस्थान पर नियन्त्रण करने में समर्थ हो जाता है । स्थूल व्यक्तित्व और सूक्ष्म व्यक्तित्व, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के बीच एक ग्रन्थि सेतु का कार्य करती है । वह है पिनियल ग्रन्थि । श्वास की जागरूकता से वह प्रभावित होती है । उसमें परिवर्तन आता है । उसमें परिवर्तन आने का अर्थ है, व्यक्तित्व में रूपान्तरण । जब पिनियल इन-एक्टिव होती है, तब वासना बढ़ जाती है, आवेग बढ़ जाते हैं, स्वभाव असन्तुलित हो जाता है। संतुलित आवेग, संतुलित विचार और संतुलित आचार-व्यवहार जिसमें होता है, वह भिन्न प्रकार का व्यक्ति होता है । यदि मनुष्य जागरूकता का विकास करने में सफल होता है, वह आचरण और व्यवहार को प्रभावित करने वाले रसायनों का परिष्कार कर सकता है तो वह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी ।
एक व्यक्ति ने पूछा- दीर्घ आयु का रहस्य क्या है ? उस प्रश्न का सीधा उत्तर है कि श्वास की संख्या जितनी कम होगी, उतनी ही दीर्घ होगी आयु । श्वास की संख्या ज्यादा होगी तो आयु कम होगी। आज के वैज्ञानिक दीर्घ आयुष्य की खोज में लगे हुए हैं । उन्होंने कुछ सूत्र ढूंढ निकाले हैं । यह खोज बहुत सीधी और महत्त्वपूर्ण है कि आयुष्य की अल्पता या दीर्घता श्वास पर निर्भर करती है | आवेग श्वास की संख्या को बढ़ाते हैं । इसका तात्पर्य है - आयुष्य का काल कम होता है । जब आवेग शान्त होते हैं तो श्वास की संख्या कम होती है । आयुष्य दीर्घ होता है ।
मनुष्य अनेक समस्याओं से आक्रान्त है । कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जिन पर उसका नियन्त्रण नहीं हो पाता । वह प्रत्यक्षतः उनका जिम्मेवार भी नहीं है । लेकिन कुछ समस्याओं का समाधान व्यक्ति स्वयं कर सकता है । वह उन्हें दूसरों के भरोसे क्यों छोड़ता है ? अपने व्यक्तित्व का समीकरण, संतुलन और परिष्कार व्यक्ति के हाथ में है । उसके प्रति ध्यान क्यों नहीं जाता ? उस ओर ध्यान जाना अत्यन्त आवश्यक है। पूरे व्यक्तित्व को मांजने-संवारने का उपाय है- ध्यान, श्वास के प्रति जागरूक होना । जो इसका सतत अभ्यास करता है, उसे यह अवश्य अनुभूति होती है- आचरण और व्यवहार बदला है, दृष्टिकोण बदला है, जीवन सुखद और वरदान बना है । उपदेश से आदमी कम बदलता है । आन्तरिक व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए, नकारात्मक भावों के स्थान पर विधेयात्मक भावों का विकास करने के लिए कुछ प्रयोग अपेक्षित हैं और वे प्रयोग जीवन के लिए अत्यन्त मूल्यवान् हो सकते हैं ।
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