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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 13 एक परकोटे से दूसरे परकोटे की दूरी 1300 धनुष प्रमाण थी। प्रथम आभ्यन्तर परकोटे मे 10,000 पक्तियाँ और मध्य एव बाह्य परकोटे मे 5000-5000 पक्तियाँ बनायी गयी थी। ये बीस हजार पक्तियाँ एक-एक हाथ ऊँचाई पर बनी थी। चूंकि चार हाथ का एक धनुष तथा दो हजार धनुष का एक कोस होने से समवसरण ढाई कोस ऊँचा था, परन्तु भगवान् के अतिशय प्रभाव से वहाँ चढने मे किसी को किचित्मात्र भी थकान का अनुभव नही होता था।
ऐसे दिव्य समवसरण की रचना करने के पश्चात् अनेक देव भगवान् के समीप महासेन वनष मे गये और भगवान् के चरणो मे स्तुति करने लगे। भते ! समवसरण परिपूर्णता को सप्राप्त है, आप वहाँ पधारे और भव्यजनो को विशिष्ट बोध प्रदान करे। ___तब भगवान् महावीर महासेन वन-उद्यान से समवसरण की ओर पधारते हैं एव देव निर्मित समवसरण के पूर्व द्वार से देवो द्वारा स्तुति किये जाते हुए प्रवेश करते हैं। तत्पश्चात् समवसरण के मध्यातिमध्य" भाग मे, जहाँ स्फटिक सिहासन निर्मित था, वहाँ पधारते हैं और 'तीर्थाय नम' कहकर उस पर विराजमान होते हैं। तदनन्तर देव दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में प्रभु का प्रतिरूप निर्मित करते है, जिससे किसी भी दिशा से प्रवेश करने वाले को यह आभास होता है कि भगवान् हमारी ओर मुख करके देशना प्रदान कर रहे हैं।
__भगवान् का अनुगमन करते हुए प्राची द्वार से प्रविष्ट वैमानिक देव भी 'तीर्थाय नम' का उच्चारण करके गणधरो एव श्रमण वर्ग के लिए स्थान छोडकर वहीं स्थान ग्रहण कर लेते हैं। भवनवासी, व्यन्तर एव ज्योतिष्क देव दक्षिण द्वार से प्रवेश करके प्रभु की तीन बार प्रदक्षिणा करके नैऋत्यकोण मे खडे रहते हैं। इनमें भी सर्वप्रथम भवनपति, उनके पीछे ज्योतिष्क एव उनके पृष्ठभाग मे व्यन्तर देव खडे रहते हैं। ज्योतिष्क देवियॉ, भवनपति देवियाँ एव व्यन्तर देवियाँ दक्षिण अपर दिशा मे बैठ गयी। मनुष्य एव मनुष्य स्त्रियाँ उत्तर द्वार से प्रवेश करके उत्तर दिशा मे बैठ गयीं।
द्वितीय परकोटे मे तिर्यच पशु-पक्षी, तिर्यंच स्त्रियाँ बैठ गयी। तृतीय बाह्य (क) धनुष-4 हाथ या 96 अगुल (ख) वन-जिस उद्यान मे एक जाति के वृक्ष हो, उसे वन कहते है। (ग) मध्यातिमध्य-ठीक बीचो-बीच (घ) प्राची-पूर्व दिशा (ङ) नैऋत्यकोण-दक्षिण-पश्चिम कोण (च) पृष्ठभाग-पीछे