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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 11 रहा जीत-कल्प है। यह देवो द्वारा करणीय है। यह देवों द्वारा आचीर्ण है। यह सब देवेन्द्रो ने सगत माना है कि सभी भवनपति', वाणव्यन्तरप, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहत भगवन्तो को नमस्कार करते हैं एव नमस्कार करते हुए अपने नाम-गोत्र को बतलाते हैं। भगवान की इस मधुरिम वाणी को श्रवण कर आभियोगिक देव अत्यन्त हर्षित-प्रफुल्लित हुए। उन्होंने प्रभु को वदन-नमस्कार किया और ईशानकोणय मे चले गये। वहाँ जाकर पूर्ववत् वैक्रिय समुद्घात करके रत्नमय दण्ड बनाया। पुन वैक्रिय समुद्घात करके उत्तर वैक्रिय रूप बनाया, सवर्तक वायु की विकुर्वणा की और तत्पश्चात् राजप्रागण की सीको की बुहारी से सफाई करने वाले महान बलशाली पुरुषो की तरह आभियोगिक देवो ने भगवान् महावीर के आस-पास की एक योजना भूमि को साफ करना प्रारम्भ किया। वहाँ पर रहे हुए घास, पत्ते, ककर, पत्थर आदि को चुन-चुन कर एकान्त मे फेक दिया, फेककर भूमि को स्वच्छ बना दिया।
तत्पश्चात् पुन वैक्रिय समुद्घातvi से उत्तर वैक्रिय शरीर बनाकर जैसे कोई भृत्य मनोयोग से फुलवारी को सीचता है, वैसे ही उन्होने मेघो की विकुर्वणा (रचना) की और रचना करके चार कोस की भूमि पर रिमझिम-रिमझिम फुहारे बरसायी। उन फुहारो से भूमि रजकण से आर्द्र बन गयी और मिट्टी मे सौंधी-सौधी महंक आने लगी।
तदनन्तर आभियोगिक देवो ने पुष्पवर्षका पयोधरों' की विकुर्वणा की और चार कोस की भूमि मे अचित्त पचरगे मनमोहक सुगन्धित पुष्पो की वर्षा की।
उन मनमोहक सुमनो की सुगध से वातावरण महकने लगा। तदनन्तर व्यन्तर देव वहाँ पर उपस्थित हुए। उन्होने चारो दिशाओ मे विचित्र मणि-रत्नो वाले आकर्षक तोरण द्वारो का निर्माण करना प्रारम्भ किया। मणियो की झिलमिलाहट से जगमगाते तोरण द्वार निपुण शिल्पकला द्वारा निर्मित करने के पश्चात् उन तोरणो पर छत्र, पुत्तलियाँ, मकर, ध्वजा और स्वस्तिक के अति (क) जीतकल्प-आचार परम्परा (ख) आर्चीण-पहले आचरण किया गया। (ग) भवनपति-भवनो मे रहने वाले असुरकुमार आदि (घ) वाणव्यन्तर-भूत, पिशाच आदि (ङ) वैमानिक-विमान में रहने वाले 12 देवलोक, 9 लोकान्तिक, 9 ग्रेवेयक, 5 अनुत्तर विमान) (च) ईशानकोण-पूर्व-उत्तर का कोण जहाँ पूर्व-उत्तर का समागम होता है। (छ) सर्वतक-वायु विशेष (ज) एक योजन- चार कोस (झ) पुष्पवर्षक-फूल बरसाने वाले। (ब) पयोधर-वादल