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प्रस्ताबना .
मानव की भावयात्रा जब सात्त्विक संस्कारपूर्ण उद्वेलन से अभिभूत होकर अभिव्यक्ति द्वारा प्राकट्य पाना चाहती है, प्राकट्य भी वैसा जिसमें सत्य एवं सौन्दर्य का परिवेश संयुक्त हो तब यह वाड्मय के रूप में नि:सृत होती है। 'हितेन सहितं-सहितं, साहितस्य भाव : साहित्यम् - के अनुसार वह सर्वकल्याणकारिता लिए होती है। अतएव उसमें शिवत्व संयोजित हो जाता है। प्राक्तन साहित्य में विद्यमान 'सत्यं शिवं सुन्दरम्” का यही रहस्य है। साहित्य की काव्यशास्त्रीय भाषा में दो विधाएँ हैं- गद्यात्मक एवं पद्यात्मक।
रसस्तिब्धता के कारण वे गद्यकाव्य और पद्यकाव्य की संज्ञाओं से भी अभिहित होती है। मानव जीवन एवं समस्त जगत् अपने आप में नैसर्गिक लयात्मकता लिए हुए है। यही कारण है कि ये दोनों ही विधाएँ तब सार्थक्य पाती है जब उनमें स्वाभाविक रूप में लयात्मकता संपुटित हो। छन्दशास्त्र उसी लयात्मकता का एक सुव्यवस्थित रूप है। पद्यात्मक रचनाएँ छन्द शास्त्रीय व्यवस्था के अनुरूप होती रही है। गद्यात्मक रचनाऐं शास्त्रीय लयात्मक सौष्ठव लिए रहती है। यद्यपि गद्य में गणों और मात्राओं का बंधन तो नहीं है, किन्तु सफलतापूर्वक लिख पाना बहुत दुष्कर माना गया है क्योंकि यहाँ पद्य की तरह पादपूर्त्यादि रूप अल्पप्रयोज्य शब्दों के रूप में कुछ भी क्षम्य नहीं होता।
इसी कारण 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' - इस प्राचीन उक्ति में गद्य को कवि के सामर्थ्य की कसौटी माना गया है।
उपर्युक्त विवेचन मुख्यत: संस्कृत की काव्यधारा के आधार पर है। हिन्दी में लौकिकता किंवा सार्वजनीनता, परिवर्तित वातावरण एवं चिन्तन के कारण साहित्यिक विधाओं में परिवर्तन या विकास होता गया। काव्यरसानुप्राणित गद्य के मुख्यत: दो रूप विकसित हुए
प्रथम विस्तारपूर्ण एवं द्वितीय संक्षिप्त।
संक्षिप्त को ही गद्यगीत की संज्ञा से अभिहित किया गया। गद्य होते हुए भी उसे गीत कहे जाने के पीछे उसमें रही तन्यमयतामूलकभावसंज्ञेयता है। केवल वाद्य यंत्रों के आधार पर गाया जाने वाला ही गीत नहीं होता। हृदतन्त्री के तारों से झंकृत, भावमुद्राओं से परिष्कृत वाङ्मयात्मक अभिव्यक्ति भी गीत की परिभाषा से बाहर नहीं जाती।