Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 16
________________ शुभकामना.. राष्ट्रभाषा हिन्दी में विस्मृत होती गद्य गीत की परम्परा को श्री जतनराजजी मेहता ने अपने अन्तर्नाद अन्तर की ओर' कृति में देकर पुनर्जीवित एवं पुन: पुष्पित किया है। कवि के अन्तहीन नयन अनन्त की आराधना में व्याकुल रहते हुए भी जीवन की ऊषा सुन्दरी का साक्षात्कार करते हैं तथा आनन्द विभोर होकर अपनी जीवन नौका को पूरे प्राणपण से खेते हुए विराट्र के दर्शन करते हैं। अनेक गीत-पंक्तियों में अपने प्रिय प्रभु के लिये विरह वेदना का मार्मिक चित्रण कर कवि ने अपरानुभूति को साकार किया है। प्रांजल भाषा, पवित्र भाव-सम्पदा तथा अद्वितीय शिल्प साधना के साथ कृति में एक ऐसा अमीरस का झरना प्रवाहित होता है, जिसके साथ पाठकवृन्द की जीवन वीणा के तार भी झंकृत हो उठते हैं। __ आधुनिक वैज्ञानिक एवं यंत्र प्रधान युग में रहते हुए प्रभु के करुणा-कानन में सप्रसन्न उठखेलियाँ करने वाला हमारा मनोमृग आज दुर्लभ हो गया है। ऐसे में रचनाकार ने विभुपद से अनन्त कृपा प्राप्त कर प्रबल पुरुषार्थ के बल पर अपने आत्मरथ को नन्दनवन का पथ प्रदान किया है, जो कवि के मन मंदिर में अनवरत जारी अनन्त एवं अखिलेश की साधना का स्वर्णिम सोपान है। यह कृति प्रेम एवं सद्भाव से पूरित एक ऐसे भावलोक का सृजन करती है, जिसकी प्रासंगिकता आज के विभाव संकल, संवेदनहीन होते कालखंड में द्विगुणित हो गई है। श्री मेहताजी का कवि-कर्म प्रशंसनीय ही नहीं, अभिनंदनीय भी है। जिसने इस असार संसार में रहते हुए भी अतीन्द्रिय सत्ता के साथ संलग्नता का सुख अपने पाठकों को प्रदान किया है। शुभाशंसा सहित। नेमीचन्द्र जैन 'भावुक' गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र, गांधी भवन, जोधपुर-३४२०११

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