Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 77
________________ 76 ५६. आराम हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो ! मैं सो रहा था. निश्चेष्ट, निष्पंद, सिर्फ धीमे-धीमे, प्राण वायु का स्पंदन हो रहा था । मैं सो रहा था मेरा आत्म चेतन जग रहा था, मैं आराम कर रहा था मेरे घट में 'राम' आ रहा था त्रिभुवन के स्वामी मेरे नाथ, मेरे स्वामी देखा तो धीरे-धीरे घट में पधार चुके थे । मैंने आसन बिछा दिया मेरे स्वामी की भाव पूजा प्रारम्भ की दूध से चरणों को धोया चन्दन चढ़ाया मेरे प्रभु के भावों की भावांजली अर्पित की। सत्य-धर्म रूपी मीठे-मीठे फल प्रभु को समर्पित किये। वहाँ काम कैसा, क्रोध कैसा, वहाँ तो सिर्फ सत्य, अहिंसा और धर्म के सुवासित, सुगन्धित उत्तम फल ही शेष रहते हैं । हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो !

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