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५६. आराम
हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो !
मैं सो रहा था.
निश्चेष्ट, निष्पंद,
सिर्फ धीमे-धीमे, प्राण वायु का
स्पंदन हो रहा था ।
मैं सो रहा था
मेरा आत्म चेतन जग रहा था,
मैं आराम कर रहा था
मेरे घट में
'राम' आ रहा था
त्रिभुवन के स्वामी मेरे नाथ, मेरे स्वामी
देखा तो धीरे-धीरे
घट में पधार चुके थे ।
मैंने आसन बिछा दिया
मेरे स्वामी की भाव पूजा प्रारम्भ की
दूध से चरणों को धोया
चन्दन चढ़ाया
मेरे प्रभु के भावों की भावांजली अर्पित की। सत्य-धर्म रूपी मीठे-मीठे फल
प्रभु को समर्पित किये। वहाँ काम कैसा, क्रोध कैसा,
वहाँ तो सिर्फ सत्य, अहिंसा और धर्म
के सुवासित, सुगन्धित
उत्तम फल ही शेष रहते हैं ।
हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो !