Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 88
________________ ६७. दामिनी हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो! तेरी ही स्वर लहरियाँ मेरे नुपुरों की रूनझुन में बज रही हैं तेरी ही नियति नटी मेरे अन्तर आंगन में नृत्य कर रही है वाद्य बज रहे हैं नुपुरों की झंकार से वातावरण मुखरित हो उठा है। मैं अपने अन्त:तल की वीणा के तारों को सप्तम स्वर में कस रहा हूँ। वीणा के तार चंचल गति से गतिमान हो रहे हैं नभो मंडल में गहन घटा छाई हुई है बिजली चमक रही है दामिनी दमक रही है इन्द्रधनुष अपना लावण्य बिखेर रहा है प्रभु के रूप लावण्य से न भो मंडल की आभा अनन्त गुणी हो उठी है ऐसे में तू उस परमात्मा के दर्शन करले आनन्द से झोली भरले इस आनन्द की तुलना में संपूर्ण संसार का वैभव भी नगण्य है हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो!

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