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६६. लवलीन-नयन हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो! प्रभु की अनन्त सृष्टि, प्रभु की ज्ञान दृष्टि। प्रभु की अनन्त वृष्टि, प्रभु की शान्त है सृष्टि। मैं तेरी ही कृपा का पान कर तेरी ही आराधना कर तेरे समीप पहुँच जाऊँगा मैं तेरे ही गीत गाकर तुझे ही पा जाऊँगा तेरी ही कृपा से भवसागर पार कर अनन्त में लीन हो जाऊँगाआपकी अनन्त सत्ता में लीन मेरा अनन्त घटवासी मीनतेरी शान्त मूर्ति में समासीन नयना तव चिन्तन लवलीन।
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