Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 96
________________ ७५. सर्वत्र तूं है हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! इस सृष्टि में सर्वत्र तूं व्याप्त हैमेरे अन्तर घट में तेरा ही साम्राज्य है चाँद और सूरज तेरे इंगित पर चलते हैं वायु तेरी ही आज्ञा से अठखेलियाँ करती है, महासागर तेरी ही गरिमा का आलोडन करते हैं तेरे बिना एक पत्ता भी हिलता नहीं हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो धन सम्पत्ति ऐश्वर्य वैभव सब अर्थहीन है चाँद तारे और मही यही तेरी सम्पत्ति है धीमी, मन्द सुगंधित वायु तेरा ही ऐश्वर्य है नदियों का प्रवाह कल-कल करते झरने पेड़ पौधे लताकुंज और सघन झाड़ियाँ यही तेरा वैभव है! यही तेरा सौन्दर्य है! प्रकृति के इस अद्भुत सौन्दर्य में तेरे दर्शन करने दे तेरी मुख रूपी छटा का पान करने दे तेरी सृष्टि का गुणगान करने दे हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! 95

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