Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 53
________________ ३२. अनन्त के नाथ मेरे प्रभो! अनन्त के नाथ! चिर सहचरी माया के बंधन तेरी ही कृपा से काटकर रहूँगा पुरुषार्थ की अनन्त सुरीली तान तेरी ही कृपा से लगा कर रहूँगा अनन्त-अनन्त पुरुषार्थ के धनी मेरे आत्म! ज्योतित आत्मदेव ! तू सर्व शक्तिमान हैकाट दे माया के बंधन सर्वत्र तू है भगवन् तेरे सिवा इस विश्व में और कछ भी नहीं है सर्वत्र तेरा ही साम्राज्य छा रहा है चर-अचर विश्व तेरे ही प्रकाश से ज्योतिर्मान हो रहा है प्रकाश के आते ही जैसे अंधकार विलुप्त हो जाता है वैसे ही तेरे प्रकट होते ही माया विलुप्त हो जाती है। हे मेरे आत्मदेव! हे अनन्त ! 152

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