Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 54
________________ ३३. प्रेमास्पद स्वरूप मेरे प्रभो! मेरे विभो! प्रभु का प्रेमास्पद स्वरूप मेरे अंग-प्रत्यंग से प्रस्फुटित हो रहा है, सचराचर विश्व का आनन्द, सचराचर विश्व का अमृत मेरे मन रूपी हृदय सरोवर से बह रहा है तेरे अनन्त आनन्द के निर्झर मन के कोने-कोने से फूट पड़े हैंमैं अपने रोम-रोम से सुधापान कर रहा हूँ तेरे सच्चिदानन्द स्वरूप में झाँक कर मेरा मन-मयूर नाच उठा है, मेरा अंग-अंग खुशी से गा उठा है। आपकी सृष्टि अत्यन्त सुन्दर है हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! 53

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