Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ ३१. मन रूपी हरिण हे मेरे आत्म-देव! तेरे करूणा-कानन में मेरा मन रूपी हरिण विचरण कर रहा है प्रसन्नता से सघन-घन संसार रूपी सघन वट वृक्ष के नीचे चौकड़ी भर रहा है ठण्डी छाँव तले लम्बे श्वास भर रहा है अब विश्राम ले चुका, आनन्द की अंगड़ाई ले रहा है। मेरे मन रूपी हरिण में - प्रभो! तुम आ बसे हो तभी तो वह तुम्हारे संगीत में मुन्ध होकर लवलीन नयनों से पान कर रहा है मेरे आत्मदेव! तेरे करूण-कानन में मेरा मन रूपी हरिण विचर रहा है। 51

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98