Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 43
________________ २२. अभिलाषा हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! एक तेरे स्पर्श मात्र से तन-तम्बूर के तार झंकृत हो उठे हैं मन-मयूर एकटक होकर तेरे इंगित पर नाच रहा है, मेरा कण-कण तेरे स्पर्श से पुलकित हो रहा है, तेरे इशारे की प्रतीक्षा कर रहा है सब कुछ तुझे समर्पित कर रहा है सर्वप्रथम मैं अपने अहं को समर्पित करता हूँ जो मुझे अत्यधिक ब्रास दे रहा है, हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! अनन्त की अनन्त साधना में, मैं सब कुछ भूल रहा हूँ मेरा 'मैं' समाप्त हो गया है मेरे प्रभो! मेरे विभो! मेरे क्षण-क्षण को तेरे चरणों का प्यार मिलता रहे, मैं प्रतिक्षण आनन्द का पर्यवेक्षण कर सकूँ यही एकमात्र आशा अभिलाषा है। मेरे अनन्त विभो! मेरे अनन्त प्रभो! 42

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